पुन्यना शुभभाव पण अनंतवार कर्या पण सर्व विकारथी पार हुं ज्ञानानंद मूर्ति छुं एवा आत्मानुं भान
कर्युं नथी.
देखाय तेम पुन्यपाप अने पराश्रयनी आडमां चैतन्य ज्योति न देखाय; आम व्यवहारनी रूचि संसारनी
रूचिना कारणे अविकारी ज्ञानानंद मूर्तिनो साक्षात्कार तें कदी कर्यो नथी, तेमां तारो दोष छे, कोई कर्म, क्षेत्र
संयोगनो दोष नथी.
कहेवाय छे. सम्यक्दर्शन उपरान्त निश्चय ब्रह्मचर्यादि व्रत विना व्यवहार व्रत होय शके नहि.
शुद्धद्रष्टि–ज्ञान–लीनता वडे स्थिरता थाय अने राग त्रुटतो जाय तेने सम्यक्दर्शन पूर्वक व्रत कहेवामां आवे
छे. आ विना मात्र पुरूषने स्त्रीनो त्याग अने स्त्रीने पुरूषना त्यागरूपे प्रतिज्ञामात्रथी ज्ञानानंद स्वरूपमां
विंटावारूप व्रत न कहेवाय–हां, साधारण नैतिक जीवननी भूमिकामां पण कूशील न होय, लोक निंद्य
अनाचार न होय, व्यवहारमां विवेकी जीवो स्व पर स्त्री, पुरुषमां विषयनो त्याग करे, ते भावने
शुभभावरूपी ब्रह्मचर्य कहेवामां आवे छे, तेने प्रतिज्ञा कहेवाय. व्रत जुदी चीज छे.–निश्चये व्रत तो चारित्र छे
ते तो ज्ञानानंद स्वरूपमां श्रद्धा द्वारा अने स्थिरता द्वारा विंटाई जाय तेने होय छे.
दानादिना भाव धर्म–जिज्ञासुओने आवे छे पण ते शुभभाव छे तेनी खतवणी–पुन्यबंधनमां थवी जोईए.
पुण्य करतां करता धर्म थशे एम माने तो मिथ्यात्वनी पूष्टि थाय छे. वळी धर्मनुं स्वरूप तेनाथीय समजी
शकाय नहि.
विकल्पनो कोट छे, तेनाथी भिन्न अंदरमां जागती ज्योति चैतन्यचमत्कार, प्रभु, सच्चिदानंद आत्मा पोते
शाश्वत बिराजमान छे. ते रजकणमां शरीरनी क्रियामां गोततां मळशे नहि,–पुन्यपाप विकारनी आडमां नहीं
मळे. बाह्यमां कोई तीर्थक्षेत्रे, डुंगरे, खोजे नहीं मळे. साक्षात् अर्हंत परमात्मा पासे धर्मसभामां जाय तो ते
पण कांई आपी देता नथी.
तप,