Atmadharma magazine - Ank 209
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : २०९
६. संसारनी रूचि वडे अनंत अनंतकाळ परिभ्रमण कर्या तेमां देहादिथी भिन्न असंग ज्ञानमात्र
चैतन्य ज्ञानानंदरूप हुं छुं एवी द्रष्टि एक समय मात्र पण करी नथी.– पुण्यपापना असंख्य भेद छे तेमां
पुन्यना शुभभाव पण अनंतवार कर्या पण सर्व विकारथी पार हुं ज्ञानानंद मूर्ति छुं एवा आत्मानुं भान
कर्युं नथी.
७. सर्वज्ञ वीतराग देवाधिदेव परमात्मा थया तेमने त्रणकाळ त्रण लोकवर्ती सर्व पदार्थनुं ज्ञान थयुं.
तेमणे कह्युं छे के अनादिथी संसारनी रूचिने लीधे तें तने ओळख्यो ज नथी.–जेम धुंमाडानी आडमां अग्नि न
देखाय तेम पुन्यपाप अने पराश्रयनी आडमां चैतन्य ज्योति न देखाय; आम व्यवहारनी रूचि संसारनी
रूचिना कारणे अविकारी ज्ञानानंद मूर्तिनो साक्षात्कार तें कदी कर्यो नथी, तेमां तारो दोष छे, कोई कर्म, क्षेत्र
संयोगनो दोष नथी.
परपदार्थना संयोग–वियोग करवा जीवना अधिकारनी वात नथी. जीव पोतामां शुभअशुभ भावने
करे, ईच्छा करे, सम्यकज्ञान करे–मिथ्याज्ञान करे, परमां कांई करी शके नहीं.
८. सवारे एक ग्रेज्युएट बहेने आजीवन ब्रह्मचर्य अंगीकार कर्युं. कोईने प्रश्न थाय के आ शुं? तो
तेमां शरीर, वाणी, मनथी प्रतिज्ञा पाळवाना भाव ते शुभभाव कहेवाय छे, ते व्रत न कहेवाय पण प्रतिज्ञा
कहेवाय छे. सम्यक्दर्शन उपरान्त निश्चय ब्रह्मचर्यादि व्रत विना व्यवहार व्रत होय शके नहि.
९. पुन्यपाप (राग) रहित अतीन्द्रिय ज्ञानानंद स्वरूपमां निर्मळश्रद्धा ज्ञानमां एकाग्रतारूपे चरवुं
तेनुं नाम परमार्थे (निश्चये) व्रत अने ब्रह्मचर्य छे– ‘ब्रह्म’ नाम ज्ञानानंदमय पोतानो आत्मा तेमां
शुद्धद्रष्टि–ज्ञान–लीनता वडे स्थिरता थाय अने राग त्रुटतो जाय तेने सम्यक्दर्शन पूर्वक व्रत कहेवामां आवे
छे. आ विना मात्र पुरूषने स्त्रीनो त्याग अने स्त्रीने पुरूषना त्यागरूपे प्रतिज्ञामात्रथी ज्ञानानंद स्वरूपमां
विंटावारूप व्रत न कहेवाय–हां, साधारण नैतिक जीवननी भूमिकामां पण कूशील न होय, लोक निंद्य
अनाचार न होय, व्यवहारमां विवेकी जीवो स्व पर स्त्री, पुरुषमां विषयनो त्याग करे, ते भावने
शुभभावरूपी ब्रह्मचर्य कहेवामां आवे छे, तेने प्रतिज्ञा कहेवाय. व्रत जुदी चीज छे.–निश्चये व्रत तो चारित्र छे
ते तो ज्ञानानंद स्वरूपमां श्रद्धा द्वारा अने स्थिरता द्वारा विंटाई जाय तेने होय छे.
१०. चारित्रना कारणरूप निश्चयसम्यकदर्शन प्रथम जोईए, ज्यां ते न होय त्यां चारित्र, व्रत, तप
त्रण काळमां होई शके नहि. सम्यकदर्शन थया पहेलां साचा देव, शास्त्र गुरूनी ओळखाण अने पूजा भक्ति
दानादिना भाव धर्म–जिज्ञासुओने आवे छे पण ते शुभभाव छे तेनी खतवणी–पुन्यबंधनमां थवी जोईए.
पुण्य करतां करता धर्म थशे एम माने तो मिथ्यात्वनी पूष्टि थाय छे. वळी धर्मनुं स्वरूप तेनाथीय समजी
शकाय नहि.
११. प्रथम तो तत्त्वज्ञान द्वारा स्व–परनुं स्वरूप जेम छे तेम जाणवुं जोईए. अनुभव प्रकाश ग्रंथमां
आवे छे के आ नोकर्म एटले शरीरनी अंदर ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मरूपी कोट छे, ते कोटनी अंदर पुन्यपापना
विकल्पनो कोट छे, तेनाथी भिन्न अंदरमां जागती ज्योति चैतन्यचमत्कार, प्रभु, सच्चिदानंद आत्मा पोते
शाश्वत बिराजमान छे. ते रजकणमां शरीरनी क्रियामां गोततां मळशे नहि,–पुन्यपाप विकारनी आडमां नहीं
मळे. बाह्यमां कोई तीर्थक्षेत्रे, डुंगरे, खोजे नहीं मळे. साक्षात् अर्हंत परमात्मा पासे धर्मसभामां जाय तो ते
पण कांई आपी देता नथी.
१२. बहारनी अने विकल्पनी अपेक्षा रहित हुं ज्ञायक छुं, एनी अंदरमां प्रतित–ज्ञान अनुभव करे
तो शरूआतना धर्मीने अविरत सम्यग्द्रष्टि कहेवामां आवे छे. एवुं भान थयां विना कोई धर्मना नामे व्रत,
तप,