Atmadharma magazine - Ank 209
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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फागण : २४८७ : १७ :
नियम ले तो ते धर्म माटे एकडा विनाना मिंडा समान छे, केमके ते शुभ भाव छे.
पुण्यभाव आवे तेनो निषेध नथी, पुजा प्रभावनाना भाव होय पण तेने व्रत न कहेवाय.
सोनगढथी जवानुं ध्येय भावनगर होय अने दोडे ढसा (आथमणी बाजु) तो गाम आवे नही, तेम धर्म
मानीने पुण्यनी क्रिया करे तो तेथी धर्मनो अंश पण आवे नहीं.
१३. पापथी बचवा–अशुभमां न जवा पुन्यभाव होय पण सम्यक्दर्शन,–सत्यदर्शन,– अंतरद्रष्टिना
ध्येयमां नित्यज्ञानानंद स्वरूप ध्रुव आत्मा बिराजे छे, तेनी प्रतीति करीने जेणे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद
लीधो छे तेने धर्मी कहे छे. तेवा जीवो भगवानना मागमां छे; कोण जीवो धर्मनुं साधन करी रह्या छे तेनो
सम्यग्द्रष्टिने विवेक होय छे.
१४. धर्मी साधक संतने आहार दान आपुं एवो भाव मोटा ईन्द्रादि देवोने पण आवे छे. पुन्यथी
अनेक प्रकारनी संपदा मळे छे, तेनी महता नथी पण देवोमां व्रत संयम नथी तेथीय मनुष्यपणु पामी संयमी
थवानी भावना ते देवो भावे छे.
१प. देवामां व्रत होतां नथी; जेम नदीमां बे कांठे पाणीना पूर चाले तेमां बीज वावी शकाय नहीं,
तेम पुन्यना फळमां स्वर्गनो भव मळ्‌यो त्यां स्थिरता, आत्मशान्ति, लीनतारूपी व्रत उगे नहीं. सम्यग्द्रष्टि
देवो जाणे छे के जेमां अतीन्द्रिय आनंदना तीव्र ओडकार आवे एवुं अहीं नथी, तेथी मनुष्य भव पामी
श्रावक अने मुनिपदनी भावना भावे छे, अने तेमां क्यारे अमे मनुष्य थई योग्यधर्मात्मा पात्रने दान
आपीये ए भावना पण होय छे. आचार्य एम कहेवा मागे छे के श्रावकोए सुपात्रे दान देवा तरफ जरूर लक्ष
आपवुं जोईए.
१६. यथार्थ ओळखाण सहित धर्मप्रभावना अने धर्मात्माना निमित्ते दाननो योग मळवो अनंतकाळे
दुर्लभ छे एम कहीने निमित्त नैमित्तिक संबंध समजावे छे. आ संसारमां परमहित तो आ आत्मानी पूर्ण
दशा छे; ते मोक्ष दशानुं कारण निश्चय रत्नत्रय छे, (रत्नत्रय एटले शुद्धोपयोग रुप मोक्षमार्ग) तेनुंं निमित
कारण श्रावको द्वारा देवामां आवतो आहार छे; तेथी जेणे निर्ग्रंथमुनिने भकितभावे आहार दान दीधुं तेणे
मोक्ष दीधो एम उपचारथी कहेवामां आवे छे.
१७. हवे ‘आ’ संसार कहेतां, आ एटले विद्यमान संसारतत्त्व छे ते जीवमां थती अशुद्ध दशा छे ते
कांई तदन असत्य भ्रान्ति नथी. दोरडीमां सर्पनी भ्रान्ति थाय त्यारे भले दोरडी सर्प नथी पण बीजे सर्प छे
तेनो आरोप थाय छे. तदन न होय तेनो आरोप न थाय. आत्मा ज्ञानानंद स्वरूपे छे. तेनी प्रगट दशामां
विकार अने तेनुं फळ दुःख छे तेने संसार कहेवामां आवे छे.
१८. त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव शक्तिरूपे नित्य शुद्ध होवा छतां, भूलना कारणे तेनी अवस्थामां
अज्ञान रूप विकार छे खरो पण ते अने तेटलो हुं छुं, रागादि मारूं कार्य छे एम मानवुं ते भ्रान्ति छे; पण
विकारने माने नही वा कर्मादि संयोगने लीधे दोष छे एम माने तो विकार टाळवानो प्रसंग रहेतो नथी.
१९. संसार क्यां रहे छे तेनी धणाने खबर नथी. पैसा, मकान, स्त्री अने शरीर ते संसार नथी पण
तेनी ममता ते संसार छे. जो शरीरादि संयोग संसार होय तो ते छूटतां मोक्ष थवो जोईए.
२०. जामनगरमां स्मशानभूमिनी दीवाल उपर गर्भ–जन्मथी मांडीने मृत्यु सुधीना चित्रो छे. ते
बतावे छे के देह विनाशी ने आत्मा अविनाशी छे. देह तो जडरजकणोथी बंधाय छे, ने बाळ, युवा, वृद्ध
थईने विखराय जाय छे. तेमां हुं बाळ, युवान अने वृद्ध थयो एम मानवुं ते रागद्वेष मोहदशा छे. अने ते
संसार छे. एम जाणीने वर्त्तमान क्षणिकदशा प्रत्ये ममता न थवी जोईए.