Atmadharma magazine - Ank 209
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 25

background image
: : आत्मधर्म : २०९
कही शकातुं हतुं के आगळ गमन करवानी जीवमां योग्यता न होवाथी ते लोकान्ते ज अटकी जाय छे. परन्तु
आ जवाब न देतां त्यां निमित्तनी अपेक्षाए (निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे) उत्तर देवामां आव्यो छे तो
त्यां एवो उत्तर देवानां बे कारण मालूम पडे छे.
३२. प्रथम तो ए के सिद्ध थवा पहेलां १३मा गुणस्थान सुधी जीवना प्रदेशोमां जे कंप थाय छे अने
१४मा गुणस्थानमां तेनुं स्थान जे निष्कम्पता लई ले छे ते त्यां एनां निमित्त केवळ धर्मद्रव्य अने अने
अधर्मद्रव्य ज नथी पण तेनी साथे अन्य निमित्त पण छे, परन्तु अहीं गतिक्रियामां अन्य निमित्तोनो सर्वथा
अभाव होईने एक मात्र धर्म द्रव्य ज निमित्त छे.
आ प्रकारे अहीं केवळ धर्म द्रव्यनी निमित्तता बताववा माटे नियमसार अने तत्त्वार्थ सूत्र आदिमां
उपर कथित जवाब देवामां आवेल छे.
३३. बीजुं कारण आ मालूम पडे छे के आना पहेलां आचार्य कुन्दकुन्दे नियमसारमां शुद्ध द्रव्योनी
पर्यायोने परनिरपेक्ष बतावेल छे. तेथी जो कोई उक्त कथननो आ अर्थ करे के शुद्ध द्रव्योनी जे कोई पण
पर्यायो थाय छे अथवा गतिक्रिया थाय छे तेमां धर्मादिक द्रव्य पण निमित्त नथी होतुं एक पर्यायोनो पर
निरपेक्ष कहेवानुं छे तो एमनुं उक्त कथनथी एवुं तात्पर्य काढवुं यथार्थ नथी, तेथी अहीं उपादान कारणनी
द्रष्टिथी उत्तर न देतां निमित्तनी मुख्यताथी उत्तर आपवामां आव्यो छे. तेथी नियमसार अने तत्त्वार्थसूत्रना
उक्त कथनना आधारे आ सिद्ध करवुं उचित नथी के उपादान कारणनो सद्भाव होवा छतां पण जो निमित्त
न होय तो कार्य थाय नहिं कारण के विवक्षित उपादानना कार्यरूपे परिणत थवानी साथे विवक्षित निमित्तनी
सम्व्याप्ति छे. छतां पण कार्योत्पत्तिमां मुख्यता उपादाननी ज छे कारण के ते स्वयं कार्यरूपे परिणमे छे.
निमित्त तेने जरा पण पोतानो अंश आपतुं नथी. निमित्तनी निमित्तना आ अर्थमां चरितार्थ छे, (–सार्थक
छे.) पण ते कार्यमां उत्पादक छे ए अर्थमां नथी. निमित्तमां कार्य उत्पादक गुणनो आरोप करी कथन करवुं ए
जुदी वात छे.
३४. अहीं आ विषयने स्पष्ट करवा माटे ज अमे तर्क आप्या ते शा माटे बराबर छे तेने स्पष्ट रूपे
समजवा माटे पंचास्तिकायनी ८९मी गाथा तथा तेनी टीका जाणवा योग्य छे. गाथा आ प्रमाणे छे.
विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि ।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुवंति ।। ८९।।
जेनी गति थाय छे तेनी फरी स्थिति थाय छे (अने जेनी स्थिति थाय छे तेनी यथा संभव फरी गति
थाय छे), माटे ते गति अने स्थिति करवावाळा पदार्थ पोताना परिणामोथी ज गति अने स्थिति करे छे. ८९.
३प. तेनी टीका करतां आचार्य अमृतचंद्र लखे छे के – “धमाधर्म ×××” आ धर्म अने अधर्न द्रव्यनी
उदासीनताना सम्बन्धमां हेतु कहेवामां आवेल छे. वास्तवमां (निश्चयथी) धर्मद्रव्य कदि पण जीवो अनु
पुद्गळोनी गतिमां हेतु नथी थता. जो तेओ बीजाओनी गति अने स्थितिना मुख्य (निश्चय) हेतु होय तो
जेनी गति होय तेनी गति ज रहेवी जोईए, स्थिति न थवी जोईए. अने जेनी स्थिति होय तेनी स्थिति ज
रहेवी जोईए, गति न थवी जोईए परंतु एकना एक पदार्थनी पण गति अने स्थिति जोवामां आवे छे माटे
अनुमान थाय छे के तेओ (धर्म अने अधर्म द्रव्य) गति अने स्थितिना मुख्य हेतु नथी, पण व्यवहारनयथी
स्थापित (निश्चित नक्की थयेल) उदासीन हेतु (निमित्त) छे.
३६. शंका–जो एम छे तो गति अने स्थितिवाळा पदार्थोनी गति अने स्थिति कई रीते थाय छे?
समाधान–वास्तवमां गति अने स्थिति करवावाळा पदार्थ पोतपोताना परिणमोथी ज निश्चयथी गति
अने स्थिति करे छे.