Atmadharma magazine - Ank 209
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २०९
प. पू. सद्रगुरुदेवनां जीव अने अजीव तत्वोनुं
मूळभूत भेदज्ञान करावतां प्रवचनो
प्रवचनसार–पोष वद सं. २०१७
हवे शरीरादि परद्रव्य प्रत्ये पण मध्यस्थपणुं प्रगट करे छे.
गाथा–१६०
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं ।
कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कात्तिणं ।। १६०।।
हुं देह नहि, वाणी न, मन नहिं तेमनुं कारण नहि;
कर्त्ता न कारयिता न, अनुमंता हुं कर्त्तानो नहि.
(१६०)
अन्वयार्थ :– हुं देह नथी, मन नथी, तेमज वाणी नथी, तेमनुं कारण नथी, कर्त्तानो अनुमोदक नथी.
धर्मात्माने शरीरादि परपदार्थ प्रत्ये पक्षपात नथी
१. धर्मीजीव शरीर, मन, वाणीने पोताना मानतो नथी. शरीर, मन, वाणी परद्रव्य छे तेथी तेना
प्रत्ये मने पक्षपात नथी एटले के आ शरीर आम रहे तो ठीक एवो मारो अभिप्राय नथी, आवा प्रकारनुं
शरीर होय तो ठीक एवी बुद्धि नथी; धर्मी जीव शरीर, मन, वाणीने सदाय परद्रव्य समजे छे, माटे तेमना
प्रत्ये तेने पक्षपात नथी; वाणी वाणीना कारणे नीकळे छे, मारे कारणे नीकळती नथी. परद्रव्यनी वर्तमान
अवस्था केवी रहेवी ते आत्माने आधिन नथी. वाणी जोरथी बोलाय तो ठीक एवी भावनावाळो
मिथ्याद्रष्टि छे.
२. शरीरनो हुं स्वामी थई शकतो नथी; शरीर, मन, वाणी परद्रव्य छे. शरीरनी अवस्था थवानी
होय ते थाय मारे तेनों पक्षपात नथी. शरीर अनुकूळ रहे तो ठीक एवो पक्षपात धर्मी करतो नथी; जे
पक्षपात करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
३. शरीर पडो के रहो, वाणी मौन रहे के बोलाय ए पुद्गलनी दशा छे, परद्रव्य प्रत्ये मने पक्षपातनो
अभाव थयो छे. जरा पण पक्षपात नथी. जुओ सम्यग्द्रष्टिनी भावना! हुं नित्य ज्ञाता द्रष्टा छुं एवो यथार्थ
निश्चय छे, आम हुं अत्यंत मध्यस्थ छुं, जरा पण पक्षपात नथी ए नास्तिथी वात करी तो अस्ति शुं छे? के
शरीरनी अवस्था जे थवानी होय ते थाय, वाणी नीकळे अथवा न नीकळे मारे तेनी साथे संबंध नथी.
परपदार्थनी हुं भिन्न छुं, हुं सर्वनी मध्यमां साक्षीपणे जाणनार छुं. परद्रव्यमां आम फेरफार थाय तो ठीक अने
न थाय तो ठीक नहि एवो पक्षपात मने नथी. अहो! हुं शरीर, मन, वाणी आदि प्रत्ये मध्यस्थ छुं.
४. ‘तत्त्वार्थ श्रद्धान’मां–जीव, अजीव, आस्रव,