Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २१०
७. अमेरीकामां मोटा कसाईखानावाळा लाखो कमाय छे, कोई जुठुं बोली, चोरी करीने धननो संयोग
पामे छे ते शुं वर्तमान पापना कारणे पैसा मळ्‌या छे? ना, ते तो पाप ज बांधे छे वर्तमान धनना ढगला
थाय ते पूर्वभवना पून्यनुं फळ छे.
८. वर्तमानमां जे कांई शुभ अशुभ विकार करे छे अने तेनी रुचि करे छे (तेने करवा लायक माने
छे) ते त्रिकाळी ज्ञानानंदनी रुचि करतो ज नथी तेथी ८४ ना अवतार करी लोभना कूवामां पडेल छे, अहीं
जुदी वात करवी छे के जेने पुन्यपापनी रुचि गई छे ने पवित्र आत्मानी रुचि थई छे पण गृहस्थदशामां छे,
तेने लोभ घटाडी वीतरागी मार्गनुं बहुमान कराववानो उपदेश छे.
९. आचार्यदेव सुपात्र दाननी महिमा बतावतां कहे छे के, जेम नदी ज्यांथी उत्पन्न थाय छे त्यां बहु
थोडो प्रवाह होय छे. पछी आगळ जतां घणी नदीनो संगम थतां थतां समुद्र नजीक जतां फिण सहित उछळी
समुद्रमां मळे छे तेम सम्यग्द्रष्टि श्रावकने प्रथम लक्ष्मी थोडी होय छे पछी मुनि धर्मात्माने आहारदान देवानो
योगमळतां भक्तिना पून्यथी लक्ष्मी वधती जाय छे अने पून्यना फळमां ईन्द्रादि देवपदनी संपदा मळे छे पण
तेनो सम्यग्द्रष्टिने आदर नथी.
१०. जेम सारो खेडु खड खातर अनाज (बीज) वावतो नथी. खड उपर नजर करी, कस–दाणा उपर
नजर छे तेम ज्ञानस्वरूपनुं भान थतां ज्ञानी जीव साचा देव–गुरु–धर्म–शास्त्रो माटे दान–पूजा, प्रभावना
भक्ति करे छे पण तेनी द्रष्टि पुन्य उपर नथी तेथी तेने अगणित अने अपूर्व पुन्य बंधाय छे.
११. जेम हजारो मण अनाज पाके त्यां घास तो बहु ज पाके तेम धर्मजीज्ञासु तथा धर्मीजीव
रागरहित शुद्ध चैतन्य छुं तेनी द्रष्टिने पहोंच्यो तेने पूर्ण उपर द्रष्टि होवा छतां वच्चे साधकनी भूमिकामां
भक्ति दानादिनो शुभ राग आवे छे तेना फळमां मोटा लोकोत्तर पुन्य होय छे. कारण के धर्मीनी द्रष्टि
वीतरागस्वभाव उपर होय छे देहादि संयोग केवा मळशे के अनुकूळतानी आशा अने प्रतिकूळतानो भय
एवी द्रष्टि तेने नथी. पण ते स्वद्रव्यना आश्रये निर्मळता केवी थई–थाय छे अने थशे तेने जाणतो
नित्यज्ञाता स्वभाव उपर द्रष्टि राखे छे.
१२. सं. १९९१ नी सालनी वात छे. जामनगर आवतां नजीक अलीयाबाडा गाम छे. त्यां
जामनगरथी १प०० माणस खास सामे आवेला; एक भाई र।। हाथनुं बाजरानुं डुंडु बताववा लावेल. ए
एम बतावे छे के; बी जेवुं वावे तेवुं डुंडु पाके छे, पण अहीं फेर एटलो के धर्मीने शुद्धतानी द्रष्टि छे तेथी तेना
फळमां पूर्ण पवित्र थाय छे पण पूर्णदशा न थाय ते सुपात्रेदानादि तथा व्रतादिना शुभ भावने तेने सहेजे
एवा मोटा पुन्यबंधाई जाय छे के तेना फळमां ईन्द्रादि पद मळे छे. भगवान तीर्थंकर देवना जन्म कल्याणक
वखते स्वर्गना देव ऐरावत हाथीनुं दिव्यरूप लई उत्सव मनाववा आवे छे अने असंख्य देवो साथे
मेरूपर्वत उपर जन्माभिषेकनो उत्सव करे छे; तेना पुन्यनुं वर्णन साधारणने न बेसे.
१३. धर्मीजीवने पर्याये–पर्याये विवेक होय छे. देव–गुरु धर्मने खातर प्राण आपे छतां अभिमान
नहि, आशा नहि. जेम सारो खेडु खड खातर वावे नही अनाज उपर द्रष्टि छे तेम धर्मी जीव पुण्य एटले
संसार खातर धर्म करतो नथी. केमके पुन्यनो महिमा तेनी द्रष्टिमांथी नीकळी गयेल छे अने पूर्ण स्वभाव
उपर द्रष्टि तेणे स्थापि छे.
(र)
१४. संसारमां भ्रमण करतां जीवे पूर्वे अज्ञान सहित, दया, दान कर्या छे पण एकेवार सम्यग्ज्ञान
सहित सुपात्रे आहारदान कर्युं नथी, बाह्य क्रियानी वात नथी पण आत्मा पोते अंदरमां शान्त ज्ञानानंद रस
अने पूर्ण सामर्थ्यथी भरेलो छे; हुं ज्ञाता द्रष्टा