Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : र४८७ : १३ :
छुं, नबळाईथी राग ऊठे तेटलो हुं नथी, एवा भान सहित साचा देव, शास्त्र, गुरु प्रत्ये बहुमान–विनयना
शुभभाव केवा होय छे तेनी आ वात छे, तेमां रागनो आदर नथी पण वीतरागी द्रष्टि अने वीतरागी
स्थिरता–चारित्रनो आदर छे. स्वरूपमां स्थिरता न होय त्यारे ज्ञानीने दानादिना पुन्यभाव होय छे,
साचामार्गनी प्रभावनामां दाननो भाव विशेष आवे छे छतां त्यां पण वीतरागनी रुचि अने अनुमोदना छे.
१प. पैसा अने तेनुं कारण पुन्य ते रहित मारूं ज्ञानानंद स्वरूप छे तेनुं भान अने अंशे स्थिरता वडे
जे जिनेश्वरना मार्गमां छे तेना भक्ति दानने ‘व्यवहार’ कहेवाय छे. आतो लोभरूपी ऊंडा कूवामां
भराएलाने बहार लाववानी वात छे. मारूं स्वरूप निर्विकार स्वच्छ ज्ञानमय छे एवी प्रभुतानो प्रेम, रुचि
आदर छे. जेने छे तेने शक्ति अनुसार दान देवानो भाव आवे छे.
१६. जे कोई शेठियो थयो तेणे विचारवुं जोईए के में प० वर्ष मजुरी करी, तेना प्रमाणमां मासीक
र००) अथवा वधारेनी गणतरी करी दान देवुं जोईए; ए रीते स्त्रीए आखी जींदगी मजुरी करी तेनो
हिसाब गणी स्वतंत्र पणे दान देवुं जोईए. घरे छोकरा छोकरीना लग्न वखते पांच पचीस हजार खर्चे छे त्यां
शुं फाळो करवा जाय छे? जेम तेमां सहाय मागे नहिं तेम जिनमंदिर अने प्रतिष्ठाउत्सव बनावनार पोतानी
शक्तिथी बनावे, सहाय मागे नहि तेमज अमे आगेवान छीए वगेरे मान खातर कांई करे नहि.
१७. आ शास्त्रनी ४६ मी गाथामां आवे छे के:–लोभनी मुर्ति एवा कृपण जीवोनुं जीवतर वृथा छे,
तेनाथी कागडो पण भलो के बळेला उकडीया मळे तो पण एकलो खाय नहीं, कों कों करी बीजा कागडाने
एकठा करीने खाय. पूर्वभवमां गुण दाज्या त्यारे पुन्य बंधाया छे केमके शान्त वीतरागी दशाना फळमां
संयोग न मळे; छतां पून्यनी धुडमां पांच, पचीस लाख मळ्‌या ते एकलो खाय ते कागडामांथी जाय छे. माटे
गृहस्थो ए दाननो विभाग जरूर करवो जोईए.
१८. “मानव होणो मुश्केल है, बने तो मोटो भाग्य;
साधु हुआ तो सिद्ध हुवा करणो न रह्यो कांई”
आवुं एक कवित छे, ते उपरथी एम समजवुं के:– अहो! मुनिपद तो सिद्धपरमेष्टीनी निकट थवानुं
पद छे एवा निर्ग्रंथ साधु परमेश्वर निरन्तर–सतत चिदानंद स्वरूपमां एकाग्रता वडे लीन रहे छे; एमने
भक्तिपूर्वक आहारदान देवानो धन्य अवसर क््यारे मळे एवी भावनावाळा धर्मी जीव विवेक अने जाग्रती
चूकता नथी अने खातापीता सर्वत्र संतोनुं स्मरण करे छे. जे आहारदानवडे भक्ति करे छे तेना भाग्यनो
पार नथी. कारण के वीतरागनो भक्त क्रमेक्रमे राग मटाडी सिद्ध परमात्मा थवानो ज छे. जे आत्मामां
त्रिकाळी अरागीना लक्षे रागक्रमे मटाडवानी ताकत छे. तेनामां सर्वथा रागनो अभाव करवानी ताकात छे.
१९. “राग–लोभ घटाडुं” एमांथी ए सिद्धांत नीकळे छे के एकेन्द्रिय निगोद दशामां ज्यां ज्ञान,
दर्शन, बळनी अतिशय हिनता छे त्यांथी मरीने जे जीव मनुष्य थाय छे ते पोताना वीर्यथी थाय छे जेम
तीव्र कषायमां जीव वीर्य (बळ) जोडे छे त्यारे हलकी गति थाय छे तेम ते ज्यारे स्वतंत्रपणे मंदकषाय करे छे
त्यारे तेना फळमां मनुष्य थाय छे, हवे पंचेन्द्रियपणुं मळे तेथी शुं? पुन्यकर्म पण छूटी जाय छे ते कांई शरण
थतुं नथी. कीडी हो के राजा हो बेउने शरीर छोडीने बीजी गतिमां जवुं थाय छे आ रीते दरेक जीव स्वतंत्र छे
हुं त्रिकाळी ज्ञान आनंद छुं एवुं भान करी राग घटाडी दान करी शके छे.
हवे आचार्यश्री कहे छे के :–
ए ते घर शाना के जेना घरे मुनि धर्मात्मानो सत्कार, चरणस्पर्श थया नथी, मुनिने आहारदान
नवधा भक्ति पूर्वक थाय छे एवा संतो–धर्मात्माना पगलाथी जेनुं घर पवित्र थतुं नथी अने धर्मात्मा तेना
हृदयमां स्मरणरूपे प्रवेश थया नथी तेनुं घर अने मन स्मशान समान छे अर्थात् व्यर्थ छे.