Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : र४८७ : १प :
समयसार : कर्ताकर्म अधिकार
जामनगरमां पूज्य सद्गुरुदेवनां प्रवचनो
ता. १९–१–६१
आ समयसारजी शास्त्र छे. तेमां कहेलुं कर्ता–कर्मनुं स्वरूप खास समजवा जेवुं छे. जेमां पोतानो
अधिकार जीव माने छे तेमां तेनुं स्वामित्व (कर्तृत्व) जीव कर्या करे छे.
२. आत्मा अने मिथ्यात्वादि आस्रवोनुं भेदज्ञान थतां ज अंतरमां ज्ञायकमात्र हुं छुं एम समजी
स्वसन्मुख थाय छे ते सम्यग्दर्शन छे. त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे.
३. हुं परथी निराळो छुं, दरेक पदार्थ स्वतंत्र छे, कोईने लीधे कोईनुं टकवुं–बदलवुं नथी, देहनी क्रिया
मारी नथी, मारा आधारे नथी. पुण्यपापना शुभाशुभ भाव वर्तमान दशामां थाय छे पण ते मारुं स्वरूप
नथी, एमां मारुं कर्ता–कर्मपणुं नथी. एम परथी भिन्न अने पोताना अनंतगुणोथी एकमेक चिदानंद छुं एम
प्रथम नक्की करवुं जोईए. पछी पोताना निर्मळ त्रिकाळी स्वभावने उपादेय मानी, ते ज हुं छुं एम ज्यारे
एकाग्रताथी अनुभव करे त्यारे सत्य, हितकारी धर्मनी शरूआत थाय छे.
४. जीव अनादिथी पोताना अज्ञानवडे पुण्यादिनी धूळमां अनुकूळता प्रतिकूळता मानी, संयोग अने
विकारनीरुचि करतो आवे छे; तेथी देहनी क्रिया अने आकृति जोईने बहारथी भलुं–भूंडुं नक्की करे छे, बहु
तो दया, दान, पूजा, भक्तिना स्थूळ व्यवहार सुधी आवी तेमां धर्म मानी ले छे, अनंतवार क्रोडपति शेठियो
थयो, रंक, राजा, अने हजारो शास्त्र जाणनारो पंडित थयो, त्यागी नाम धरावी एना मानेला बधा साधन
कर्यां पण आत्मज्ञान एनाथी थतुं नथी. ए वात श्रीमद् राजचंद्रजी पण कही गया छे. तेओ कहे छे के:–
यम नियम संयम आप कियो,
पुनि त्याग वैराग्य अथाग लीयो.
वनवास लह्यो मुख मौन रह्यो
द्रढ आसन पद्म लगाय दीयो.
मन पौन–निरोध स्वबोध कीयो.
हठ जोग प्रयोग सु तार भयो.
जप भेद जपे तप त्यों ही तपे,
उर सें ही उदासी लही सबपै.
सब शास्त्रन के नय धारि हिये,
मत मंडन खंडन भेद लिये,
वह साधन वार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो.
अब कयों न विचारत है मनसे,
कछु और रहा उन साधन से.
बिन सद्गुरु कोई न भेद लहे,
मुख आगल है वह बात कहे.