: १६ : आत्मधर्म : २१०
करणा हम पावत हैं तुमकी,
वह बात रही सुगुरु गमकी.
पलमें प्रगटे मुख आगल से,
जब सद्गुरु चरण सु प्रेम बसे.
तनसे मनसे धनसे, सबसे,
जब सद्गुरु चरन सु प्रेम बसे.
तब कारज सिद्ध बने अपनो,
रस अमृत पावहीं प्रेम घनो.
प. प्रभु तारा मूळ स्वरूपनी वात तें सांभळी नथी. बधा आत्माने ‘प्रभु’ कहीए छीए. शक्तिरूपे जे
प्रभुत्व छे ते ज प्रभुपद प्रगट (दशामां), थाय छे. कोई कंई देतुं नथी. साची जिज्ञासाथी समजे तो
निमित्तने ‘निमित्त’ कहेवाय.
६. श्रीमद् कहे छे के :–
“जे स्वरूप सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां
कही शक््या नहीं ते पण श्री भगवाननो
तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे
अनुभव गोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो
अपूर्व अवसर.”
श्रीमद् राजचंद्रजीए र९ मा वर्षे आ महाकाव्य बनाव्युं छे अने १६ वर्षनी उंमरे मोक्षमाळा नामे
पुस्तक लख्युं छे.
७. तेमने अपूर्व भान (आत्मज्ञान) हतुं. देह मारो नथी तो स्त्री–पुत्रादि मारा केम होय? जेम पाणीमां
सेवाळ दूर करी विवेकी जीव स्वच्छ जळ पीवे तेम विवेकवान ज्ञानी रागदशा छतां, तेनाथी रहित ज्ञानस्वरूपनो ज
अनुभव करे छे. दया, दान, पूजा, भक्ति आदिना शुभ भाव ते पुण्य भाव छे. हिंसा, काम, क्रोधादि, अशुभभाव
पाप छे बेउ आस्रवतत्त्व छे, बंधनना कारण छे. ज्ञानीनो पंचमहाव्रतनो शुभ राग पण आस्रव छे, मलिन छे; ते
रूपे हुं थनारो नथी पण ते सर्व आस्रवोथी पार ज्ञानानंद छुं. तेमां सुरता लगावीने अंतरमां ढळतां निर्विकल्प
आनंद दशा आत्मामां थाय छे तेने संवर–निर्जरा, मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे ते शुद्धभावे परिणत आत्माने ज
आत्मा कहीए, त्रणे काळ आ वात छे. बहारनी क्रिया अने शुभ रागमां शुद्धतारूप धर्म नथी.
८. एक लाखोपतिनी स्त्री चोखा जुदा पाडवा कमोद (–डांगर) खांडती हती. चोखा वजनदार नीचे
उतरे छे अने फोतरा उपर आवे छे. एक बाईए उपरथी जोयुं के हुं पण फोतरा संग्रह करीने खांडुं; तेम खांडे
छे पण तेमांथी चोखा मळे? धर्मी जीव पोताना परिणाम (भाव) प्रमाणे बंधन–मोक्ष–अहित अथवा हितनुं
थवुं माने छे, बाह्य क्रिया अने शुभा–शुभ विकल्पनो तेने आदर नथी तेनो कर्ता–भोक्ता के स्वामी थतो
नथी, तोपण (पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी) भूमिकानुसार दया, दान, पूजा, भक्तिनो राग आवे छे.
अज्ञानी तो ज्ञानीनी बाह्य क्रिया देखी नकल करे छे; अंतर द्रष्टिथी जणावा योग्य निश्चयनो भाव शुं ते बाह्य
द्रष्टिना कारणे सूजे नहि, तेथी माने छे के अमे पण धर्मनी क्रिया करीए छीए पण ते तो फोतरा ज खांडे छे.
अंदरनी अतीन्द्रिय अनुभवरूप ज्ञाननी क्रिया ते समजता नथी.
९. धर्मी जीव देवोनो ईन्द्र होय के मनुष्य होय भक्ति भावथी पगे घुघरा बांधी भगवाननी मूर्ति
सामे नृत्य करे; दान दे, पण ते रागने के शरीरनी क्रियाने संवर–निर्जरारूप धर्म मानता नथी; वीतरागी द्रष्टि
अने वीतरागी स्थिरताने ज धर्म माने छे.
(नकलनुं द्रष्टान्त)
जंगलमां दीवासळीथी घास सळगावीने ठंडीमां माणसो तापता हता. ते जोईने वांदराओ आगीया नामे
पतंगीयाने चमकता देखी तेने अग्नि मानी घासमां नाखवा लाग्या, तेथी कांई घास सळगे नहीं अने कांई