चैत्र : र४८७ : १७ :
ठंडी मटे नहीं. आम नकल करे पण ठंडी उडवानुं काम थाय नहीं, तेम अज्ञानीओ तत्त्व समज्या विना
ज्ञानीओनी बाह्य क्रियानी नकल करे, पण तेनुं अज्ञान टळे नहीं.
१०. चोथा गुणस्थानमां व्रत न होय, पूजा, भक्ति, दानना शुभभाव होय. पांचमा गुणस्थानमां बे
कषायना अभावे अणुव्रत होय; मुनिदशामां महाव्रत–नग्नदशा आदि र८ मूळगुण होय; बहारथी एने जोईने
कोई नकल करवा लागे तेओ जेम टाढ उडाडवा वांदरा आगीया जीवडाने पकडीने अग्नि करवा मागे छे तेना
जेवी भ्रमणाने सेवे छे.
११. निमित्त होय छे पण तेनाथी कल्याण थतुं होय तो एक तीर्थंकर थाय ते बधाने तारी दे. बीजाने
समजावी दे तो ज ज्ञानी–एवुं वस्तुस्वरूप नथी. जेम बदाम उपर छोडां होय छे ने पछी फोतरी होय छे; तेनी
अंदर सफेद गोळो ते बदाम छे; तेम शरीर अने शुभाशुभ रागथी पार अंदरमां शुद्ध ज्ञानानंदमूर्ति छे ते
आत्मा छे; तेनाथी विरुद्ध जे रागादि छे, ते आस्रव छे; पुण्यपाप ते उपरनी फोतरी समान मेल छे आस्रव छे
तेनाथी रहित चैतन्य नित्य छे; तेने द्रष्टिमां लेवो तेनो आदर (आश्रय) करी तेमां एकतानो अनुभव
करवो ते धर्म छे.
१र. पुण्यपापनुं कर्तृत्त्व ते ज्ञाता आत्मानी अरुचिरूप क्रोधादिनुं थवुं छे, आवो राग होय तो ठीक पडे
एम विकारनी महत्ता ते निर्विकार आत्मानी तुच्छता करनार मान छे, राग अने त्रिकाळी ज्ञाननुं भेदज्ञान
करवानी शक्ति छुपाववी ते कपट (माया) छे. पुण्यने भलुं माने ते ज्ञाताने खराब माननार (तूच्छ
माननार) लोभ छे. ज्ञानीने अमुक हद सुधी पुण्य–पापनी वृत्ति ऊठे छे पण तेणे ते उपरनी द्रष्टि उठावी;
सम्यग्दर्शन– ज्ञानवडे अंतरमां प्रवेश कर्यो छे. तेथी ते रागादिनो कर्त्ता नथी पण व्यवहारे ज्ञाता छे.
अतीन्द्रिय आनंद दशानुं प्रगटवुं (ते रूपे थवुं) एवी दशा धर्मीने होय छे. जीवोने अनादिकाळथी अंतरनुं
तत्त्व समजायुं नथी. पण जिज्ञासाथी सत् सांभळवामां एकाग्रता राखे तो समजाय तेवुं छे.
१३. पोतानी भूलना कारणे रागद्वेष, पुण्यपापनी वृत्ति थाय छे पण तेटलो ने तेवो आत्मा नथी;
रागादि आस्रवोथी पार पोतानुं स्वरूप छे ते स्वरूप सन्मुख थई जीव ज्ञातापणुं प्रगट करे ते दशानुं नाम
क्षमा (अहिंसा) धर्म कहेवाय छे.
१४. जाणवुं मानवुं तेमां शुं, कांई करवानुं कहोने! एम केटला कहे छे. परंतु ते तो रागनुं कार्य छे.
राग तो जीव अनादि कर्ताबुद्धिथी करतो आवे छे, ते करवानुं ज्ञानी केम कहे? तेवा जीवने हुं ज्ञाता ज छुं
एवा असली स्वरूपनी अरुचि छे तेथी एवां जीवोने भगवान आत्मा कहेता नथी.
१प. अज्ञानीने पुण्यादि विकारनो प्रेम छे तेथी ते तेनो कर्ता थई परिणमे छे. जे जीवने त्रिकाळी
निर्विकारी ‘ज्ञायक स्वभाव’ प्रत्ये वेर छे, ते जीव स्वभावनुं बहुमान छोडी. रागनुं बहुमान करे छे तेथी तेने
मिथ्यात्वनुं बहुमान छे ते अनंतानुबंधीमान कहेवाय छे.
[गा. ७१ उपर पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
[जामनगर ता. २०–१–६१]
१६. अनंतकाळथी अज्ञानीपणावडे ‘कर्ताकर्म’ शुं छे ते जीवे जाण्युं नथी, पण आ शरीर अने ईन्द्रियो
संबंधी ज्ञान तेटलो ज हुं एम मानतो होवाथी अतीन्द्रिय–अमूर्तिक केवळज्ञानस्वभावी नित्य चैतन्यपणे हुं
छुं एम पोताने जाणतो नथी. आ शरीर ते ज हुं–पुण्यपापना भाव थाय ते ज हुं एम मानतो होवाथी
(अज्ञानथी) तेमां पोतानुं कर्ता–कर्म (–कार्य) माने छे.