Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : २१० :
वतारी छे पण भक्ति उछळे छे तेथी आश्चर्य प्रगट करीने कहे छे के हे प्रभु! अंदरमां परमानंदमय स्वरूपने
आपे जेवुं अनुभव्युं छे ते अनुपम छे पण बहारमां शरीरनुं रूप पण उत्कृष्ट सुंदर छे. हजार नेत्रथी पण
तृप्ति थती नथी एम भक्तिभाव वडे अशुभमां न जवा माटे एवो राग धर्मी जीवने आवे छे पण ते राग
करवा जेवो छे एम ते मानता नथी.
३३. खीचडी चूला उपर होय त्यारे प्रथम काळी वराळ नीकळे पछी धोळी वराळ नीकळे अने ठंडी थये
काळी धोळी कोई वराळ न नीकळे, तेम पुण्य–पाप धोळी–काळी वराळ समान छे. तेने धर्मी जीव आश्रय
करवा योग्य माने नहि अने चिदानंद मारो पूर्ण स्वभाव छे तेना महात्म्य आगळ पुण्य–पापनुं महात्म्य तेने
आवतुं नथी. चैतन्य स्वभावमां लीन थवुं तेमां पुण्य–पापनी वराळ नथी. जेने ज्ञायक स्वभावनी अधिकता
न थई–रागनी अधिकता थई तेने ज्ञातास्वभाव उपर क्रोध छे.
स्वभावनी महानता चूकीने विकारनी महानता ते अनंतानुबंधी मान छे. स्वभाव नित्यज्ञानानंद छे
तेनी द्रष्टि थई पछी विकारनुं बहुमान ज्ञानीने थतुं नथी. कोईपण प्रकारनो राग ते विरुद्धभाव छे एम न
मानतां स्वभावनुं सामर्थ्य चूकी आडाई करवी, हमणां तो राग करवो जोईए. ते आडोडाई अनंतानुबंधीनुं
कपट (माया) छे. शुभ राग (पुण्य) ने हितकारी मानवो ते अनंतानुबंधी लोभ छे. आ वात आगळ
केटलीक वार आवी गई छे पण आजे फरी स्पष्टता करी छे.
३४ (). स्वभावद्रष्टि थया पछी एवा अज्ञानमय क्रोधादि थता नथी, पण सर्व विभावने हेयपणे
जाणतुं स्व–पर प्रकाशक ज्ञान प्रगट थाय छे.
आचार्य कहे छे के:–एवा ज्ञाननुं थवुं–परिणमवुं्र ते क्रोधादिनुं थवुं–परिणमवुं नथी, जेम पाणीनी
स्वच्छता शीतळता भाळनारो उपरना तेलना टीपाने भाळतो नथी तेम त्रिकाळी निर्मळज्ञान स्वभावने ज
उपादेयपणे, एकमेकपणे जाणनारो क्षणिक विकारीभावोने पोताना तरीके भाळतो नथी. क्रोधादि आस्रवनो
आदर अने ज्ञातास्वभावनो अनादर एवुं अंतरमां तेने भासतुं नथी.
३४ (). वर्तमानमां अमारे करवुं शुं? एम घणा पूछे छे तेनो उत्तर के: भाई! तुं कोण छो ने शुं
करी शके छे, शुं नथी करी शकतो ते समजवा प्रयत्न कर, ते ज वर्त्तमानमां प्रथम करवा जेवुं छे ते समजण
थतां साचुं समाधान थशे ज; बहारमां जोया करे के आ अमारा काम अने हुं तेनो कर्त्ता तेने कदी दुःखनो
आरो (अंत) आवशे नहि.
३प. प्रथम तारुं असली स्वरूप शुं ते लक्षमां ले; जेम आंबा उपरनी केरी खानारना बे प्रकार छे–
पोपट सीधो ऊडीने खाय, कीडी तेना थडेथी चडीने खाय. फळ खावामां बेउ सरखा छे, फेर नथी; तेम प्रथम
भेदज्ञानी थई आत्मानुं थड पकडे ते धीमे धीमे साचा सुखने अनुभवे छे अने जे उग्र पुरुषार्थ करे ते
पोपटनी जेम शीघ्र उग्रसुख अनुभवे छे. तेमां फेर पडतो नथी. माटे हे जीवो, तमे प्रथम साचुं समजो.
ज्ञानस्वरूप आत्मानी समजण अने तेमां एकतानो अनुभव ते ज जीवना यथार्थ अधिकारनी वात छे.
३६. संयोगो लेवा, मूकवा, फेरववा ते जीवना हाथनी वात नथी. कां तो साचुं ज्ञान करे, कां तो
अभिमान करे. ते शरीरमां रोग लाववा मागतो नथी छतां ते आवे छे, रोग काळे रोगने टाळी न शके पण
तेनुं ज्ञान करी शके छे. रोग के निरोगरूप शरीरनी अवस्था छे तेने जीवे पकडेल नथी के तेने छोडी शके. ते तो
अज्ञानभावमां राग, द्वेष, क्रोधादि विकारने पकडे छे ते केम छूटे? ते अहीं कहेवाय छे के हुं ते रूपे नथी, शुद्ध
चैतन्य अमृत छुं, विकार मारुं कर्तव्य नथी. पण हुं शुद्ध चैतन्यमय ज्ञाता स्वभाव छुं एम द्रष्टिथी स्वभावने
पकडे तो तेने ज्ञाननुं थवुं–परिणमवुं थाय;