Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : २१०
जामनगरमां श्रीपंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवमां दीक्षा
कल्याणकप्रसंगनुं वैराग्यप्रेरक प्रवचन
(महा सुदी प, ता. २१–१–६१)
१. हमणां भगवान श्री पार्श्वनाथनो दीक्षानो महोत्सव थयो. तेमने आत्मज्ञान तो पूर्व भवोमां हतुं ज.
तीर्थंकर भगवान थनार आत्मा, आ भवमां आवे छे त्यारे त्रण ज्ञान लईने आवे छे, कोई नारक क्षेत्रथी
आवीने, कोई स्वर्गथी आवीने तीर्थंकर थाय छे. गर्भ, जन्म, दीक्षा (–तप) केवळज्ञान अने मोक्ष (–निर्वाण)
ए पांचे कल्याणकवाळा तीर्थंकरोए तो त्रीजे भवे (आगळथी) तीर्थंकर नामकर्म बांधेलुं होय छे सम्यग्दर्शननी
भूमिकामां शुभरागथी ते कर्म बंधाय छे. अहो! आवो पूर्णस्वतंत्रतानो मार्ग बधा पामे अने हुं पूर्ण थाउं, एवा
प्रकारना रागना निमित्ते कर्म बंधाणुं ते राग अने कर्म बेउ अनित्य छे, तीर्थंकरनो देह पण अनित्य छे. ते
जीवोने तीर्थंकर पद तो केवळज्ञान प्रगट थतां थाय छे पण गृहस्थदशामां वैराग्य थतां तेमने जातिस्मरणज्ञान
थाय छे अने विशेष वैराग्यवंत थई निर्ग्रंथदशा धारण करे छे. जगतथी सर्व प्रकारे उदास थई एवी भावना
तीर्थंकर पण भावे छे के हुं देह नहि, वाणी नहि, मन नहिं तेमनुं कारण नथी कर्ता करावनार प्रेरक पण नथी.
शरीर अनित्य छे, पुण्यपाप रागद्वेष मोह आस्रवो अनित्य छे, मलिन छे, आत्मा नित्य निर्मळ छे.
अनित्यता केवी छे के माता जन्म आपे ते पहेलां ज आ शरीर अनित्य मातानी गोदमां पडे छे,
माता तो त्यार पछी गोदमां ले छे. हुं तो कोईनो पुत्रादि नथी एवुं भेदज्ञान तो प्रथमथी ज होय छे, तेनी
विशेषपणे वैराग्य अर्थे ज्ञानीजीव भावना भावे छे. नक्की ते ज भवे मोक्ष जाय छे छतां सर्व तीर्थंकरो
अनित्यादि बार प्रकारनी भावना भावे छे.
र. श्रीमद् राजचंद्रजी पण भावना भावता हता के :–
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे,
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो;
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
विचरशुं कव महत पुरुषने पंथ जो.
अपूर्व.
सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी,
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो;
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहि.
देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो.
अपूर्व.
जगत्गुरु तीर्थंकर देवना वैराग्यनी शी वात! महान गंभीर सहज वैराग्यनी तेओ मूर्ति छे.
अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतां ए संत शिरोमणी ते ज भवे मोक्ष लेवाना होय छे.
४. त्रण काळे मुनि दशा (साधु परमेष्टी) छे ते बाह्य अभ्यंतर निर्ग्रन्थ ज होय छे, बाह्यमां वस्त्रनो
कटको पण नहीं, अंदरमां त्रण कषायना अभावपूर्वक वीतरागी शान्तदशारूप चारित्र तेमने होय छे.