आवीने, कोई स्वर्गथी आवीने तीर्थंकर थाय छे. गर्भ, जन्म, दीक्षा (–तप) केवळज्ञान अने मोक्ष (–निर्वाण)
ए पांचे कल्याणकवाळा तीर्थंकरोए तो त्रीजे भवे (आगळथी) तीर्थंकर नामकर्म बांधेलुं होय छे सम्यग्दर्शननी
भूमिकामां शुभरागथी ते कर्म बंधाय छे. अहो! आवो पूर्णस्वतंत्रतानो मार्ग बधा पामे अने हुं पूर्ण थाउं, एवा
प्रकारना रागना निमित्ते कर्म बंधाणुं ते राग अने कर्म बेउ अनित्य छे, तीर्थंकरनो देह पण अनित्य छे. ते
जीवोने तीर्थंकर पद तो केवळज्ञान प्रगट थतां थाय छे पण गृहस्थदशामां वैराग्य थतां तेमने जातिस्मरणज्ञान
थाय छे अने विशेष वैराग्यवंत थई निर्ग्रंथदशा धारण करे छे. जगतथी सर्व प्रकारे उदास थई एवी भावना
तीर्थंकर पण भावे छे के हुं देह नहि, वाणी नहि, मन नहिं तेमनुं कारण नथी कर्ता करावनार प्रेरक पण नथी.
शरीर अनित्य छे, पुण्यपाप रागद्वेष मोह आस्रवो अनित्य छे, मलिन छे, आत्मा नित्य निर्मळ छे.
विशेषपणे वैराग्य अर्थे ज्ञानीजीव भावना भावे छे. नक्की ते ज भवे मोक्ष जाय छे छतां सर्व तीर्थंकरो
अनित्यादि बार प्रकारनी भावना भावे छे.
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो;
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
विचरशुं कव महत पुरुषने पंथ जो.
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो;
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहि.
देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो.