Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८७ : २३ :
अंतरमां रागनो संग नहि बहारमां वस्त्रनो संग नहि. मुनि दशा अंगीकार करी, तीर्थंकर भगवान ध्यानमां
बेसे छे ने तुर्त ज चोथुं ज्ञान–मनःपर्ययज्ञान प्रगटे छे. ज्यां सुधी केवळज्ञान प्रगट न करे त्यां सुधी वारंवार
छठा सातमा गुणस्थानमां आवे छे अने अतीन्द्रिय निर्विकार चिदानंद स्वरूपमां वारंवार लिनतानो स्वाद
लेतां आनंदना झुलामां झुले छे.
प. धर्मात्मा जीव तीर्थंकरोनी उत्कृष्ट वैराग्यदशानुं स्मरण करी पोतानी जाग्रती वधारे छे. मुनि दशा
एवी होय छे के “मात्र देह ते संयम हेतु हेय जो” देह छोड्यो जतो नथी, बाकी बधुं तो छूटवा लायक छे तेथी
नग्न देह होवा छतां, देहने संयमनो हेतु जाणी आहार देवानो राग आवे छे. पण कोई मुनिने वस्त्र पात्रादि
लेवा–राखवानो राग न आवे केमके ते गृहस्थ दशाना रागना निमित्तो छे. जेथी मुनि दशामां (साधु पदमां)
वस्त्र पात्र संयमनो हेतु त्रण काळमां कदि पण होय नहि.
६. मुनिने स्नान शा माटे नहि? तेनुं कारण ए छे के ते शृंगारमां जाय छे. ईन्द्रिय विजयीने ते न
होय. अदंत धोवन, नग्नता ए दशा देह प्रत्ये जेने तीव्र आसक्ति तूटी तेने होय ज, त्रण कषाय रहित
अंतरमां लिनतारूप आनंद दशा जेने प्रगटे तेनी बाह्य तेवी ज दशा होय, “नग्नभाव मुंडभाव सह
अस्नानता” ए होय ज छे. अंदरमां निर्मळानंद चिद्रूपनो स्पर्श–अनुभव निरन्तर वेदे छे तेने बाह्य जळथी
स्नान करी शरीरने उजळुं करवुं एवो भाव होतो नथी. तेमने तो एवी भावना होय छे के अंतरमां
एकाग्रता द्वारा आनंदनी लहेरमां एवा झुलीए के शक्तिरूपे जे आनंद भर्यो छे तेनो स्वाद लेतां तृप्त तृप्त
थई रहीये–अतीन्द्रिय आनंदमां नित्य केली करवी जेनो सहज स्वभाव छे एवो अपूर्व अवसर क््यारे
आवशे, तेनी ज्ञानीओ भावना भावे छे. श्री बनारसीदासजी कहे छे के:–
“कहे विचिक्षण पुरुष सदा हुं एक हो,
अपने रससे भर्यो अनादि टेक हो.
मोह कर्म मम नांहि, नांहि भ्रम कूप है
शुद्ध चेतना सिंधु हमारा रूप है”
वीतराग थवानी रुचिवाळो जीव चारित्र प्रगट थया पहेला, वीतराग चारित्रनी भावना करे छे.
७. मोह एटले स्वरूपमां असावधानी ते क्षणीक छे, मारूं रूप एवुं नथी. मारा त्रिकाळी ध्रुव
स्वभावमां तेनो कदि प्रवेश थतो नथी. ज्ञानीने एवां श्रद्धा–ज्ञान छे ज. परमां सुख बुद्धि–परथी सुखदुःख
मानवुं परनो कर्ता भोक्ता अथवा स्वामी छुं एम मानवुं ते भ्रमणा छे. ते मोहनो कूवो छे. तेमां अनादिथी
जीव पडतो आवे छे पण जे जीव स्व–परनुं भान करी जाग्यो अने अनादिना ध्रुव निर्मळ स्वभावने जाण्यो
ते जीव मलीनताने पोतानुं स्वरूप माने नही. ज्ञानीओने मुनि दशामां घोर तपश्चर्या होय छे पण तेमना
मनने ताप होतो नथी “घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप नहि” एवुं तेमनुं स्वरूप होय छे.
८. जेम समुद्रनी मध्यनां पाणी उछळीने भरती लावे ते वखते बहारमां सूर्यनो ११८ डीग्री ताप होय
ते भरतीने ओट रूपे थवानुं कारण बने नहि तेम आत्मा अंदर त्रिकाळी अनंत शक्तिनो भंडार छे ते
भंडारनी अंदरमांथी ध्रुव स्वभावनी रुचि करी जे जाग्यो तेने अतीन्द्रिय स्वभाव मारामां भर्यो ज छे एवी
प्रतीति होय छे. तेवी प्रतीति थया पछी चारित्रमां निर्ग्रंथ दशा थतां बाह्यमां प्रतिकूळताना गंज आवे तो ते
कोई विघनकर्ता बनी शकवा समर्थ नथी. तपनुं लक्षण ईच्छा निरोध छे तेनुं अस्तिथी लक्षणचैतन्यना
आनंदमां प्रतापवंतपणे शोभवुं ए छे.
९. आत्माना बेहद आनंदना स्वादने लेवानो जे उत्साही थयो तेने कदि १२–मास आहार न मळे तो
य दिनता थती नथी केमके अतीन्द्रिय परमानंदना