Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : २१०
ओडकार लेतां बहारमां क््यांय स्वाद भळतो ज नथी–कदि सरस भोजननो योग बने तो प्रसन्नतानो राग
(रतिभाव) उत्पन्न न थाय. एवो अपूर्व अवसर पोताना आत्मा पासे धर्मी मागे छे.
१०. श्रीमद् कहे छे के:–
“रजकण के रीद्धि वैमानिक देवनी
सर्वे मान्या पुद्गळ एक स्वभावजो.”
ए रीते आत्मानंद आगळ ए बधुं धुड ज छे. पुराय अने विखाय ए एनो स्वभाव छे. तेनो प्रेम
छोडी अमे तो आत्माना आनंदमां झुलीए जे वाटे अनंता वीतरागी संतो चाल्या ए अमारो पंथ छे. पुण्य
भलुं ने पापना संयोग खराब एवो भेद (विषमभाव) ने मनमां लावे नहि.
११. वळी तेओ कहे छे के :–
‘एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां
वळी पर्वतमां वाघ सिंह संयोगजो
अडोल आसन ने मनने नहि क्षोभता
परम मित्रनो जाण्ये पाम्या योगजो..’
आनंदमां झुलतां, देहनी दरकार रहेती नथी–भगवान थवा माटे भगवाने कहेला चारित्रनी
रमणताए चड्ये, खेद रहेतो नथी. तपमां खेद होतो ज नथी पण आनंद होय छे ज्यां लोकोने खेद अने डर
लागे छे त्यां संतो कहे छे के अमने अतीन्द्रिय आनंदनी अधिकता छे वनमां पर्वतमां वाघ सिंहनो संयोग हो
तो भले हो. देहथी भिन्न अने शाश्वत चैतन्य स्वरूपथी अछिन्न अभिन्न अमे एकमेक छीए एवी लीनतानो
स्वाद लेवा रोकाणा त्यां शरीरनुं अडोल आसन होय छे–मुख्यपणे शरीरनी एवी दशा होय छे.
१२. शरीर जीवथी भिन्न छे, अत्यारे पण प्रत्यक्ष भिन्न ज छे–मारे शरीर जोतुं नथी अने सिंहने जोवे
छे अने लई जाय छे तो ते मित्र छे, सिंह आवीने शरीरने पकडे ए टाणे; हुं पकडुं अडोल आत्मस्थिरता
एवी भावना ज्ञानीओने होय छे हुं अविनाशी अनंतगुण सम्पन्न आत्मा छुं, शरीर हुं त्रण काळमां नथी
एवा भान पूर्वक चारित्रमां आरूढ थयो ते मुनिपदनुं चारित्र अलौकिक छे. जगतनी परवा छोडी,–जगतथी
उदास वन जंगलमां एकला रहेवामां मुनिने खेद नथी–निश्चयसम्यग्दर्शन शुं तेनुं स्वरूप हजी लोकोए
सांभळ्‌युं नथी; अने सम्यग्दर्शन विना चारित्र कदी होय नहि.
१३. अन्य स्थळे तेओ कहे छे के:–
विद्युत, लक्ष्मि, प्रभुता पतंग
आयुष्य ते तो जळना तरंग;
पुरंदरी चाप अनंग रंग,
शुं राचिये ज्यां क्षणनो प्रसंग
आत्माना अनुभवथी प्रगट थती केवळज्ञानरूपी लक्ष्मीनो नाश थतो नथी पण जगत जेने लक्ष्मी,
(धन) कहे छे ते तो विजळीना चमकार समान छे. आत्मानी प्रभुताथी विरुद्ध बहारनी मानेली प्रभुता
मोटाई अमलदार, शेठियापणुं पतंगना काचा रंग समान नाशवान छे, बाह्य लक्ष्मी मळे छे ते वर्तमान
बुद्धि–चतुराईथी मळती नथी पण पूर्वना पुण्यथी आवी मळे छे. खरी रीते पैसा तने मळ्‌या नथी पण ममता
तें करी छे ते तारी साथे रहे छे; माटे खरेखर ममता मळे छे, पर वस्तुने आत्मा मेळवी शकतो नथी. आवुं
जळना तरंग समान क्षणभंगूर छे कोईथी रोकी शकातुं नथी. आकाशमां थता ईन्द्रधनुष्य समान अनंग रंग–
कामभोगनी विषय वासना छे. रूपाळा शरीर, यौवन, पांच ईन्द्रियना विषयो क्षणमां विंखाई जाय छे. ‘शुं
राचिये ज्यां क्षणनो प्रसंग’ जुवो–नित्यना लक्षे अनित्यनो वैराग्य.
१४. संसारमां केवी विचित्रदशा थाय छे. जे मातानी कूंखे अवतार लीधो तेनी साथे भोग लेनारो