Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८७ : :
४१. आवी रीते आटला विवेचनथी आ सिद्ध थयुं के प्रत्येक उपादान पोतपोतानी स्वतंत्र
योग्यतासम्पन्न होय छे अने तेना अनुसारे प्रत्येक कार्यनी उत्पत्ति थाय छे, तथा एनाथी ए पण सिद्ध थयुं
के प्रत्येक समयनुं उपादान पृथक् पृथक् छे, एटला माटे तेना वडे क्रम पूर्वक जे जे पर्यायो उत्पन्न थाय छे ते
पोत–पोताना काळमां नियत छे. ते पोतपोताना समये ज थाय छे. आगळ पाछळ थती नथी. आ वातने
स्पष्ट करतां श्री अमृतचंद्राचार्य प्रवचनसार गा. ९९ नी टीकामां कहे छे के –
यथैव हि परिगृहीत द्राधिम्नि ×××’
“जेम जेणे विवक्षित (–अमुक) लंबाई ग्रहण करी छे एवी लटकती मोतीनी माळामां पोतपोताना
स्थानमां प्रकाशतां समस्त मोतियोमां पछी पछीनां स्थानोमां पछी पछीनां स्थानोमां पछी पछीनां मोतियो
प्रगट थतां होवाथी अने पहेलां पहेलांना मोतिओ नहि प्रगट थतां होवाथी तथा बधेय परस्पर
(मोतियोमां) अनुस्यूति
सूचक एक दोरो अवस्थित होवाथी उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यरूप त्रिलक्षणपणुं प्रसिद्धि
पामे छे.
“तेम जेणे नित्यवृत्ति ग्रहण करेली छे एवा रचाता (परिणमता) द्रव्यमां पोतपोताना काळमां
प्रकाशमान (प्रगट) थवावाळा समस्त पर्यायोमां पछी पछीना काळोमां पछी पछीना पर्यायो उत्पन्न थवाथी
अने पहेलां पहेलांना पर्यायोनो व्यय थवाथी तथा ए समस्त पर्यायोमां अनुस्यूतिपूर्वक एक प्रवाह
अवस्थित होवाथी उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यरूप त्रिलक्षणपणुं प्रसिद्धि पामे छे.”
४२. आ प्रवचनसारनी टीकानुं उद्धरण छे के जे प्रत्येक द्रव्यमां उत्पादादि त्रयना समर्थन माटे
लेवामां आवेल छे. आमां द्रव्यना स्थाने मोतीनी माळा छे, उत्पाद–व्ययना स्थाने मोती छे अने अन्वय
(उर्ध्वता सामान्य) ना स्थाने दोरो छे. जेम मोतीनी माळामां समस्त मोती पोतपोताना स्थानमां प्रकाशी
रह्या छे. गणतरीना क्रमथी तेमांथी पछी पछीनुं एक एक मोती अतीत (व्यय) थतुं जाय छे अने पहेलां
पहेलांनुं एकेक मोती प्रगट थतुं जाय छे. तो पण समस्त मोतीओमां दोरो अनुस्यूत होवाथी तेमां अन्वय
बनी रहे छे, तेथी त्रिलक्षणपणानी सिद्धि थाय छे. ते ज प्रकारे नित्य परिणाम–स्वभाव एक द्रव्यमां अतीत,
वर्तमान अने अनागत समस्त पर्यायो पोत–पोताना काळमां प्रगट थई रह्या छे. तेथी तेमांथी
*पूर्व पूर्व
पर्यायो क्रमथी व्ययने पामता होवाथी पछी पछीना पर्यायो उत्पादरूप थता जाय छे अने तेमां अनुस्यूति
पूर्वक एक अखंड प्रवाह (उर्ध्वतासामान्य) निरन्तर अवस्थित रहे छे, माटे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यरूप
त्रिलक्षणपणानी सिद्धि थाय छे, आ उक्त कथननुं तात्पर्य छे.
४३. आने जो विशेष अधिक स्पष्टरूपे जोवामां आवे तो जणाय छे के भूतकाळमां पदार्थमां जे जे
पर्यायो थता हता ते बधा द्रव्यरूपे वर्तमान पदार्थमां अवस्थित छे अने भविष्य काळमां जे जे पर्यायो थशे ते
पण द्रव्यरूपे वर्तमान पदार्थमां अवस्थित छे. तेथी जे पर्यायना उत्पादनो जे समय होय छे ते ज समयमां ते
पर्याय उत्पन्न थाय छे. अने जे पर्यायना व्ययनो जे समय होय छे ते समये ते व्यय थई जाय छे. एवो एक
पण पर्याय नथी के जे द्रव्यरूपे वस्तुमां (द्रव्यमां) न होय अने उत्पन्न थई जाय अने एवो एक पण पर्याय
नथी के जेनो व्यय थतां द्रव्यरूपे वस्तुमां तेनुं अस्तित्व ज न होय.
४४. आ ज वातने स्पष्ट करता थका आप्त मीमांसामां स्वामी समन्तभद्र कहे छे के:–
यद्यसत् सर्वथा कार्यं तन्मा जनि ख पुष्पवत् ।
मोपादाननियमो भून्माश्यासः कार्य जन्मनि ।। ४२।।
१. अनुस्यूति–क्रमबद्ध: परोवेल; गूंथाएल. (नालंदा. शेष, पृ. प७.)
२. लेखना भागनो जेमनो तेम उतारो; अवतरण.
* पूर्व–पहेलां