Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : २११ :
“जो कार्य सर्वथा असत् छे अर्थात् जेम ते पर्यायरूपे असत् छे तेम ते द्रव्यरूपे पण असत् छे तो जेम
आकाशना फूलनी उत्पत्ति थती नथी तेम कार्यनी पण उत्पत्ति न थाओ तथा उपादाननो नियम पण न रहे
अने कार्य उत्पन्न थवामां विश्वास (–सारी रीते भरोसो) पण थाय नहि. ४२
आ ज वातने आचार्य विद्यानंदे उक्त श्लोकनी टीकामां आ शब्दोमां स्वीकार करेल छे:– “कथंचित्
सत् एव × ×” जेम कथंचित् सत्नो ज विनाश घटित थाय छे तेम कथंचित् सत्नो ज ध्रौव्य अने उत्पाद
घटित थाय छे.
४प. प्रध्वंसाभावना समर्थनना प्रसंगे आ ज वातने वधारे स्पष्ट करता थका आचार्य विद्यानंद
अष्टसहस्री पृ. प३ मां कहे छे के–“स हि द्रव्यस्य वा ×××” ‘ते अत्यंत विनाश द्रव्यनो थाय छे के पर्यायनो?
द्रव्यनो तो थई शकतो नथी, केमके ते नित्य छे. पर्यायनो पण थई शकतो नथी, केमके ते द्रव्यरूपे ध्रौव्य छे.
जेम विवादयुक्त मणि आदिमां मल आदि पर्यायरूपे नाशवान होवा छतां पण द्रव्यरूपे ध्रुव छे. अन्यथा (–
बीजी रीते) तेनी सत्त्वरूपे (–अस्तित्वरूपे; सत्तारूपे.) उत्पत्ति थई शकती नथी.”
४६. अहीं स्वामी समंतभंद्रे अने आचार्य श्री विद्यानंदे प्रत्येक कार्यनी द्रव्यमां जे कथंचित् सत्ता
स्वीकारी छे तेनुं आ ज तात्पर्य छे के प्रत्येक कार्य द्रव्यमां शक्तिरूपे अवस्थित रहे छे. जो ते तेमां शक्तिरूपे
अवस्थित न होय तो तेनो उत्पाद एम बनी शकतो ज नथी, जेम आकाशना फूलनो उत्पाद नथी बनतो.
वळी एटलुं ज नहि, जे उपादाननो नियम छे के आनाथी आ ज कार्य उत्पन्न थाय छे, एना विना आ
नियम पण बनी शकतो नथी. त्यारे तो माटीथी वस्त्रनी अने जीवथी अजीवनी पण उत्पत्ति थई जवी
जोईए अने जो एम थवा लागे तो आनाथी आ ज कार्य थशे एवो भरोसो करवो कठण थई जशे. तेथी
द्रव्यमां शक्तिरूपे जे कार्य विद्यमान छे ते ज स्वकाळ आवतां कार्यरूपे परिणमे छे एवो निश्चय करवो जोईए.
४७. कारणमां कार्यनी सत्ता तो सांख्यदर्शन पण माने छे, परंतु ते प्रकृतिने सर्वथा नित्य अने तेमां
कार्यनी सत्ताने सर्वथा सत् माने छे. माटे तेणे कार्यनो उत्पाद अने व्यय न मानीने तेनो अविर्भाव (–प्रगट
थवुं) अने तिरोभाव (–छूपावुं) मानेल छे. जैन दर्शननो सांख्यदर्शनथी जो कोई मतभेद छे तो ते आ ज
वातमां छे के, ते कारणने सर्वथा नित्य माने छे जैन दर्शन कथंचित् नित्य माने छे ते कारणमां कार्यनी सर्वथा
सत्ता माने छे, जैन दर्शन कथंचित् सत्त्व (सत्ता) माने छे. ते (सांख्य दर्शन) कार्यनो आविर्भाव–तिरोभाव
माने छे, जैनदर्शन कार्यनो उत्पाद–व्यय माने छे.
४८. कारणमां कार्य सर्वथा नथी, पहेलां तेनो सर्वथा प्रागभाव छे ए मत नैयायिक दर्शननो छे. पण
जैन दर्शन तेनाथी पण विरुद्ध छे. ते न तो सर्वथा सांख्यदर्शननुं ज अनुसरण करे छे तथा न सर्वथा
नैयायिक दर्शननुं ज. अने ए बराबर पण छे केमके द्रव्य कथंचित् नित्य उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य स्वभाव
प्रतीतिमां आवे छे. साथे ज तेमां कार्यनी कारणरूपे सत्ता होवाथी जे जे कार्यनो स्वकाल होय छे ते काळमां
तेनो जन्म (उत्पाद) थाय छे.
४९. आ विषयना पोषक अन्य उदाहरणोनी वात छोडीने जो आपणे कार्मण वर्गणाओने कर्मरूपे
परिणमननी जे प्रक्रिया (–पद्धति) छे अने कर्मरूप थया पछी तेनी जे विविध (जुदी जुदी, अनेक)
अवस्थाओ थाय छे तेना उपर ध्यान आपीए तो प्रत्येक कार्य स्वकाळे थाय छे ए तत्त्व अनायास समजमां
आवी जाय छे; साधारण नियम ए छे के प्रारंभनां गुणस्थानोमां आयुबंधना समये आठ कर्मोनो अने
अन्य