: १४ : आत्मधर्म : २११
मध्यमां मगरमच्छना मुखमां ज छो. तेनो स्वभाव छे के पग पकड्या पछी छोडे नहि–ऊंडा पाणीमां घसडी
ज जाय (जेम वहाणमां छोकराए पग बहार काढ्यो, मगरे पकड्यो, कोई शरण थयुं नहीं) तेम अज्ञान
अने पुण्यपाप आत्महित माटे कोईने शरणदाता थता नथी.
७. शुभाशुभ भावनुं स्वामीत्व मिथ्यात्व छे. ते ज मुख्य परिग्रह छे. जे देहादिमां तीव्र ममता करे छे,
तीव्र अभिमान अने घोर पाप करे छे तेओ सातमी नरक सुधी जाय छे.
श्री राजचंद्रजी कहे छे के “हे नाथ! सातमी महातमतमप्रभा नारकीनी वेदना संमत छे पण जगतनी
मोहनी (स्वरूपनी भ्रमणा) संमत नथी. क्षण क्षण भयंकर भावमरण करनार मोहभावना दुःख घणां मोटां
छे.”
८. नारकी तथा एकेन्द्रिय दशामां अनंतकाळ तें एवा दुःख भोगव्यां छे के तेने भोगवनार जाणे अने
बीजा केवळज्ञानी भगवान जाणे. ए रीते चार गतिमां दुःख ज छे. एक आत्मामां अवलोकन करे तो तेमां
सदा सुख ज छे. सुखनो दाता पोते अने दुःखनो दाता पोतानो ऊंधो पुरुषार्थ छे.
९. अहीं वींछीनी वेदना सही जाती नथी पण तुं अज्ञानभावे अनंतवार मरीने दुर्गतिमां गयो त्यां
अनंत दुःखो सहन कर्या, अनंतभव कर्या त्यां तारी माता पण अनंतवार रडी तेना आंसु भेगा करे तो
अनंता दरिया भराय अने तें एटली मातानां दुध पीधां छे के अनंता दरिया भराय छतां तृष्णा–ममता
आडे–आत्मामां आनंदरस भर्यो छे ते तने देखातो नथी.
१०. कोई कहे आत्मानुं यथार्थ ज्ञान थया पछी जीव तुरत त्यागी थई जवो जोईए तो तेनी वात
बहाबर नथी. श्रद्धा (–सम्यग्दर्शन) नुं कार्यक्षेत्र जुदुं छे अने चारित्रनुं कार्यक्षेत्र जुदुं छे. ज्ञानीने वर्तमान
चारित्रनी नबळाईना कारणे गृहस्थदशानो राग होय छे छतां संसार, शरीर अने भोगादिमां तेने जराय
प्रेम होतो नथी. ते अंतरमां तो नित्य अबंध–असंग पूर्ण चैतन्य स्वभावने ज देखे छे ने तेमां ज सदा
प्रीतिवंत छे.
११. जगत पैसावाळाने सुखी माने छे, पण जेने पर वस्तुनी जरूर पडे छे ते सुखी शेनो! आ जीवे
अनादिथी परविना, धनविना चलाव्युं छे पण माने छे ऊंधुंं के एना विना न चाले. रागभाव ते पराधिनता
छे–दुःख छे, एना विना चलावी लेवा मागे ते सुखी थाय.
प्रथम निर्मळश्रद्धाथी सुखी थाय छे पछी चारीत्र एटले अंतरएकाग्रताना प्रमाणमां सुखी थाय छे.
१२. संयोगथी सुखदुःख नथी पण संयोग अने विकारनी ममता ते दुःख छे. राग गमे ते जातनो होय
ते दुःख छे एम जेने दुःख लाग्युं होय तेने त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ सर्वदुःखथी छूटवानो रस्तो (उपाय) बतावे
छे.
१३. ज्यारे तावनुं जोर होय त्यारे मीठुं दूध पण भावतुं नथी ने भोजननी रुचि पण थती नथी. तेम
मिथ्यारुचिवाळा जीवने पवित्र धर्मना वचनो गमतां नथी.
१४. अहीं आचार्य देव कहे छे के:–तने मिथ्यात्वादि दुःख दुःखरूपे लागे तो दुःखथी मुक्त थवानी वात
कहुं. बंधनथी छूटवानी तालावेली लागी होय तेने आ वात कहेजो. तृषातुरने पाजो,
“नोय वहालुं अंतर भव दुःख” भव भवना कलेषथी थाक लाग्यो होय ते अंतरमां विश्राम गोते. ,
के अरे!! परने माटे वृत्ति ऊठे ते आकुळता छे. शुभराग पण करवा जेवो नथी. थाय खरो पण श्रद्धामां
आदरणीय न माने. दया, दानादिना के महाव्रत आदिना शुभभाव पुण्यआस्रव छे अने हिंसादिना
अशुभभाव