Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८७ : १प :
ते पापआस्रव छे–बेउ मेल छे–आकुळता छे, तेनी श्रद्धा छोडी, तेनाथी रहित–वीतरागी थाय त्यारे सुखी थाय
छे. तेने माटे जळमां सेवाळनो दाखलो आप्यो.
१प. जेम सेवाळमां जळ नथी अने स्वच्छ जळ स्वभावमां सेवाळ नथी तेम पुण्यपाप विकार छे
तेमां निर्मळ चैतन्यस्वभाव नथी, रागमां हुं नथी, हुं मां (मारामां) राग नथी. हुं तो त्रिकाळज्ञाता ज छुं
एम स्वसन्मुख थतां ज आस्रवोनी रुचि छूटी जाय छे.
१६. अनादिथी विकारमां, व्यवहार–पराश्रयमां सुख मानी अज्ञानवडे तेमां कर्ता–कर्मपणुं मानी रह्यो
हतो. ज्यां भेदज्ञानवडे त्रिकाळी निर्मळस्वभाव अने क्षणिक विभावनो भेद जाण्यो, ध्रुव स्वभाव उपर द्रष्टि
दीधी के तत्काळ अज्ञानमय आस्रवो छूटी ज जाय छे.
१७. ज्यां लगी आस्रवोनुं विपरीतपणुं जाणे नहि. तेओ खरेखर दुःखदाता ज छे एम माने नहि त्यां
सुधी तेनाथी छूटवा मागे नहि. पछी भले ते मोटो महात्मा कहेवातो होय पण तेने पुण्यनो शुभ रागनो प्रेम
वर्ते छे. तेथी ते महात्मा नथी पण पामर छे–दूरात्मा छे.
१८. शुभभाव हो के अशुभभाव हो, विकारनो अंश पण चैतननो विरोधी छे, ते आत्मानुं मूळरूप
नथी पण विरूप छे. क्षणिक होवाथी टळे छे ने जे टळे ते तारुं नहि. एम प्रथम श्रद्धा करवी जोईए.
१९. आ वात लक्षमां लेवा मागे तो न समजाय एवी नथी. जे समजी शके छे तेने तेनी शक्ति जेटलुं
ज कहेवाय छे. आचार्य कहे छे के आ वात आत्माने कहेवाय छे, जडने नहि. देहने तथा शुभाशुभ रागने
संभळावता नथी केमके तेओ सदा जड–अचेतन ज छे अने देह तथा रागादिथी भिन्न चैतन्य छे ते ज आत्मा
छे, ते सदा जाणनार स्वरूप छे तेथी तेने कहीए छीए.
२०. ज्ञानी बधा आत्माने पोता समान जाणे छे. “सर्व जीव छे ज्ञानमय एवो जे समभाव, ते
सामायिक जिन कहे प्रगट करे भवपार.”
बधा जीवोने हुं क्षमा आपुं छुं अने सर्व जीवो पासे क्षमानी याचना करुं छुं, मारे कोई साथे वेर–
विरोध नथी. त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव अने क्षणिक विकारमां एकता मानवारूप रागनी रुचि हती अर्थात्
स्वभावनो विरोध हतो ते मटी गयो छे.
२१. गृहस्थदशामां पण धर्मात्मा केवा होय तेनुं वर्णन करतां पं. बनारसीदासजी कही गया छे के:–
“स्वारथके साचै परमाथके साचै चित,
साचै साचैं बैन कहे, साचैं जैनमति है,
काहूके विरुद्धि नाहि, परजाय (पर्याय) बुद्धि नाहि,
(पुण्यपाप मारां–हुं एनो; ए करवा जेवां छे एवी पर्यायबुद्धि नथी. अंतर चिदानंदमां डूबकी लगावी
शान्तिनी शोधमां पड्यो छे.) आतम गवेशी न गृहस्थ है, न यति है.
(हुं गृहस्थ छुं, हुं यति एवा विकल्प तेनी श्रद्धामां नथी, निरपेक्षद्रष्टि थईने ज्यां ऊभो छे त्यां
अतीन्द्रिय आनंदमय आत्मरसमां ऊभो छे तेथी तेने गृहस्थ न कहिये, साधु न कहिये.)
“रिद्धि सिद्धि वृद्धि दिसे घटमें प्रगट सदा,
अंतरकी लच्छी (लक्ष्मी) सों अजाचि लक्षपति है;
दास भगवंतको उदास रहे जगतसों,
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती है.”
धर्मी केवा होय? के पोताना पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे गृहस्थदशामां होय, धंधा–राजपाट होय छतां
रागनो आदर नथी, एक्ताबुद्धि नथी. रागरहित स्वभावमां एकता वर्ते छे. मात्र आत्महितरूप प्रयोजननी
सिद्धिमां ज सावधान छे, बाकी बधुं गौण छे. तूच्छ छे.