Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : २११
साचां साचां वचन कहे अर्थात् वीतरागतानां वचन अने वीतरागता अर्थे उपदेश होय छे. रिद्धि,
सिद्धि वृद्धि दिसे घटमां (–आत्मामां) प्रगट सदा:–अमारा हृदयमां, श्रद्धामां ज्ञानमां सदाय चिदानंदनी रिद्धि,
सिद्धिरूप संपदा छे. बहारमां कुटुंब, परिवार, धन, आबरू ए अमारी संपदा नहि.
ज्ञानी अंतरनी लक्ष्मीथी प्रतापवंत शोभावाळो थयो छे. विकारनी एक्ताबुद्धि छोडी, शाश्वत
चैतन्यमयपूर्ण आनंदनी अंतरद्रष्टि अने शान्तिरूपी स्वधनवडे अजाचि एवो लक्षपतिस्वरूप संपदानो स्वामी
छे.
दास भगवंत को उदास रहे जगत सों,
सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है – त्रिलोकनाथ
सर्वज्ञदेव वीतरागनो दास छे, बीजानो दास नथी. जे पंथे जिनवर तर्या ने अक्षय मोक्षसुख पाम्या ते
ज सुखनो अधिकारी अंशे निरन्तर आत्मरसमां डुबकी मारी अनाकूळतानो स्वाद लेनारो सदा सुखी छे.
२२. आत्मामां आस्रवभाव (मिथ्यात्वादि मलिनभाव) अनादिनो प्रवाहरूपे चालुं होवा छतां एक
क्षणमां केवी रीते टळे? ते कहे छे के आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमय छे, सुख दाता छे अने पुण्य
पाप विकारनो भाव तो मलिन, क्षणिक अने दुःखदाता छे एम स्वसन्मुखद्रष्टि थतां बेनो भेद जाण्यो त्यां ज
विकारमां एकता बुद्धिरूपी अनंतसंसारनी गांठ गळी जाय छे. त्रिकाळीस्वभाव अने क्षणिकविभावने जरा पण
मेळ नथी. एम जाण्युं त्यां ज अंतरनी दर्शनमोहनी गांठ भेदाई जाय छे. अने अज्ञानथी थतो आस्रवभाव
जुदे पडी जाय छे, एवो नियम छे. प्रथम श्रद्धामां सर्वथा अने पछी क्रमे क्रमे चारित्रमांथी अंशे विकारनुं टळवुं
थाय छे.
र३. पुण्य पाप छे ते चैतन्य स्वभावथी विरुद्ध जात छे, ते खरेखर आत्मानी पर्याय नथी, जेम पुत्र
(प्रजा) घरमांथी लूंटीने वेश्याना घर भरे तेने पिता पोतानी प्रजा न गणे, तेमज पुण्य पापनुं समजवुं.
र४. शुभाशुभभाव जड छे–अंध छे, राग रागने जाणे नहि पण ते अन्यवडे जणाय छे माटे ते विरुद्ध
स्वभाववाळा छे अने भगवान आत्मा तो पोताने सदा्य विज्ञानघनपणुं होवाथी पोते ज चेतक–ज्ञाता
होवाथी चैतन्यपणाथी सदा एकमेक स्वभाववाळो छे. आवी द्रष्टि थतां ज अनंतकाळना कर्म आवतां अटकी
जाय छे. पोते पोताने जाणे अने रागने परपणे जाणे एम भावभासनरूपे भेदज्ञान थतां ज मिथ्यात्व अने
तेना आवरणरूप कर्म निवृत्त थाय छे.
२प. अज्ञानीने पुण्यपापनो प्रेम दुःखरूप भासतो नथी तेथी त्यांथी पाछो फरीने अंतरस्वभाव जे
सुखदाता छे तेने जोतो नथी. ध्रुव स्वभावमां सुख छे तेनाथी विरुद्धदशा ते आस्रवो छे एम न समजे त्यां
सुधी सुखस्वभावी आत्मानो प्रेम न थाय.
आत्माने विज्ञानघन कह्यो छे जेम शियाळाना ऊंचा घी ठर्या पछी तेमां आंगळी न पेसे तेम आ
त्रिकाळी विज्ञानघन आत्मामां शुभाशुभ विकल्प पेसी शके नहि. एवा स्वभावनी श्रद्धा निर्विकल्प थतां ज
संसार (आस्रव अने बंधन) तूटे छे.