वैशाख : २४८७ : १७ :
परवस्तु सुख – दु:खदाता नथी पण
जीव पोताना मिथ्याअभिप्रायना कारणे
दु:खी छे
(जामनगरमां समयसार कर्ताकर्मअधिकार गाथा ७१ उपर पूज्य गुरुदेवनुं प्रवचन)
(माह सुद प, संवत् २०१७ ता. २१–१–६१)
शिष्ये पूछयुं के अमारे दुःख जोईतुं नथी, छतां तेनो अंत केम
देखातो नथी? तेने कहे छे के भाई! तुं देहथी भिन्न आत्मा छो, तारी
वस्तु सत् चिदानंदपणे छे, तेनाथी तुं जुदो नथी, एकमेक छो; पण तेम
नथी मानतो तेथी तारा क्षेत्रे बीजी चीजोने–देह, देहनी क्रिया अने पुण्य–
पापनी लागणी साथे एकताबुद्धि करी रह्यो छे ते भ्रम छे. वळी, मारे
लीधे परनां काम थाय अने तेना कारणे मारामां फेरफार थाय, एम बे
द्रव्यनी एकतानी द्रष्टिथी परमां अने विकारमां कर्तापणुं मानी दुःखी थई
रह्यो छे.
आ देहमां रहेल आत्मतत्त्व देहथी तद्न जुदा स्वरूपे छे. ते अनादिथी छे. जे होय ते गया काळमां न
होय एम बने नहि, अने होय तेनो भावी काळमां नाश न थाय. अनंतवार अनंता देहना संयोगमां आव्यो
पण आत्मा कदीये देहरूपे थयो नथी.
आ जड माटी देखाय छे ते रूपी छे तेमां स्पर्श, रस गंध, वर्ण अने अस्तित्वादि गुण छे पण तेमां
जराय ज्ञान नथी तेथी कोईपण जीव पोतानी चैतन्यजात छोडीने बीजामां भळी जाय एवुं बने नहि.
देह जडपणे कायम रहीने पोतानी अवस्था धारण करे छे. वस्तु सदा एकरूप टकीने तेमां ज तेनी
अवस्था जळतरंगवत् एक पछी एक थया करे छे; तेम आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुख आदि शक्तिथी भरेलो छे
ते अनादि काळथी पोताने भूली परने पोतानुं माने छे अने तेथी पुण्य–पाप विकारभावे भ्रमण करी रह्यो
छे, अंदर पोते शाश्वत ज्ञाता द्रष्टा–साक्षीपणे छे, ज्ञानानंदमय पोतानुं स्वरूप छे तेनुं अंर्तद्रष्टिथी कदी ज्ञान
कर्युं नथी. तेथी रागादि विकारनो कर्ता–भोक्ता स्वामी अज्ञानताथी थाय छे.