आत्मा पोते ज पूर्ण ज्ञानआनंदथी भर्यो छे; तेने भूलीने अज्ञानी वर्तमान देह–ईन्द्रियो–अधूरुं खंडखंड ज्ञान
अने विकार जेटलो पोताने मानी, पोतामां भेद पाडे छे. अने जगत साथे (परसाथे) अभेद करे छे. ज्ञानी
परथी भेद पाडी पोताना स्वरूपथी पोताने अभेद करे छे. शरीर–ईन्द्रिय, आयु, श्वास, भाषा, मन ए जड
पदार्थ छे, तेना जेवो हुं नथी. जड ईन्द्रि हुं रस चाखतो नथी, जडना काम मारां नथी. पूर्वे स्व–परनी एकत्व
बुद्धिवडे परमां कर्ता–कर्मपणुंमानी दुःखी थयो हतो. हवे स्वलक्षे भेदज्ञान कर्युं त्यारथी सुखी थयो.
समये समता छे. धर्म करे अहीं अने फळ परभावमां मळे एम नथी.
भेद नहि जाणनार मेला जळने ज पीए छे तेम वर्तमान दशामां परलक्षे पुण्य–पापनी वृत्ति ऊठे छे, तेनी
उपर ज जेनी द्रष्टि पडी छे अने तेमां ज कर्ता–कर्मपणुं माने छे ते ज्ञातास्वभावनो विरोध करनार होवाथी
दुःखने ज अनुभवे छे.
द्रष्टिनो अनादर करी रह्यो छे.
मोटुं शरीर थयुं. ते कांई शाश्वत (कायमी) नथी, रोटला आदिरूपे जे परमाणु हता ते आ शरीररूपे थया छे.
रोटलाने वींछी करडे तो दुःख न माने पण अहीं शरीरने वींछी करडे तो राड पाडे छे केमके हुं आत्मा जाणनार
स्वरूप छुं, देह हुं नथी–एवी द्रष्टि करी नथी.
सामर्थ्य जाणवा–देखवारूपे तारामां छे, तेनी प्रतीति तें न करी, तेनाथी आ दुःखरूप दशा छे. त्रिकाळी
निर्वकारस्वभावथी ऊलटी चीज पुण्य–पापरूप शुभअशुभ लागणी छे, तेने दुःखरूपे (दोषरूपे) जाणे तो
त्रिकाळी स्वभावना लक्षे मलिनतानुं कर्ताकर्मपणुं छूटे.
देखो तो तेनुं खरुं स्वरूप न जणाय पण ज्ञानीनो यथार्थ उपदेश सांभळी तेनुं स्वरूप समजे अने तेनां
श्रद्धा–ज्ञान अने एकाग्रतारूप उपाय करे तो ते प्रगट थाय छे.