वैशाख : २४८७ : : २१ :
आवतुं नथी, माटे ते वखते शुं जीव न हतो? हतो ज, तेम माताना गर्भमां कोई बीजे स्थानेथी आव्यो ते
पहेलां पण पोते हतो एवुं पूर्वभवनुं जाति स्मरण करी शके छे, एवी तेनामां ताकात छे. खरेखर एनाथी
अनंतगणी ताकात जीवमां दरेक समये छे, तेनो महिमा लावी विचार करतो नथी ने आंधळी दोडे बहारमां
जोवा मागे छे. ते केवी रीते जोई शके? न ज जोई शके.
आचार्य भगवाने तो अत्यंत स्पष्टपणे सत्यने जाहेर कर्युं छे के तारुं सुख तारामां ज छे; ते स्वाधीन
ज छे. अंदर शक्तिरूपे पूर्ण आनंद पड्यो छे, तेनी अभेद श्रद्धा तेनुं ज्ञान अने तेमां एकाग्रतानुं बळ
देतांदेतां ए शक्तिनो एन्लार्ज थाय एटले पूर्ण आनंद प्रगट थाय. वर्तमान विभाव अने अल्पज्ञता उपरनी
द्रष्टि छोडी, त्रिकाळी निर्मळ पूर्णस्वभाव उपर द्रष्टि दे तो सर्वविभावनो नाशक स्वभाव प्रगट अनुभवमां
आवी शके छे.
प्रशंसनीय कोण छे?
आ जगतमां जे आत्मा निर्मळ सम्यग्दर्शनमां पोतानी बुद्धि निश्चल
राखे छे, ते कदाचित् पूर्व पाप कर्मना उदयथी निर्धन पण होय; एकलो पण
होय तो पण वास्तवमां प्रशंसनीय होय छे अने एनाथी विपरीत, जे जीव
अनंत आनंददायक एवा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयथी बाह्य छे अने
मिथ्यामार्गमां रहेलो छे एवो मिथ्याद्रष्टि मनुष्य भले अनेक होय अने
वर्तमानमां शुभकर्मना उदयथी प्रसन्न होय तोपण तेओ प्रशंसनीय नथी माटे
भव्यजीवोए सम्यग्दर्शन धारण करवानो निरन्तर प्रयत्न करवो जोईए.
(पद्मनन्दि–देशव्रत उद्योतन अधिकार–२)