Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८७ : २३ :
भावमां क्षणिक विभावनो अत्यंत अभाव छे, एम विभावनी अत्यंत विपरीतता अने ध्रुवस्वभावनुं
सामर्थ्य जाणी अंतरमां पूर्णस्वरूपनी रुचि करवी ए धर्मनुं मूळ छे.
स्वभावनी अरुचिरूप क्रोधादि रहित हुं ज्ञाता ज छुं, ज्ञानमां राग नथी एवुं भेदज्ञान ज्यारे जीव करे
छे त्यारे क्रोधादि साथेनुं एकपणारूप अज्ञान तेने मटे छे. आ रीते ज्ञानथी ज वीतरागी मार्गनी प्राप्ति अने
बंधनो निरोध थाय छे.
विशेष जिज्ञासाथी शिष्य पूछे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध कई रीते थाय छे? तेनो उत्तर कहे छे :–
(गाथा ७र)
अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोना जाणीने, वळी जाणीने, दुःखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे.
अपूर्व अने यथार्थ वात समजवा माटे एकाग्रताथी तेना भावने पकडवो जोईए. अहीं भेदज्ञाननी
रीत बतावे छे. (ज्ञान स्वभावनी अरुचि अने विकारमां कर्तापणानी रुचि तेने अहीं मुख्यपणे आस्रव
कहेल छे.) आस्रवो अशुचि, विपरीत, अने दुःखनां कारण छे; अने आत्मा सदा पवित्र, निर्मळ अने सुखनुं
कारण छे; एम जाणीने जे जीव ज्ञानस्वभावनो आदर करनारो थाय छे, (स्वसन्मुख द्रष्टि करे छे,
ज्ञानस्वभावनुं अनुसरण करनारो थाय छे), ते जीव आस्रवोथी निवृत्ति करे छे.
आत्मा ध्रुवस्वभावपणे तो सदाय ज्ञानानंद चैतन्य ज्योत छे, पण वर्तमान विकार उपर द्रष्टिवडे
स्वभावने भूलीने हुं परनी अवस्था करी दउं, हुं तेनी रचनानो कर्ता छुं, हुं हाजर होउं तो त्यां काम सराडे चडी
जाय, बगडेलने सुधारी दउं एवी मान्यता करे छे ते मोटो भ्रम छे. तेमां ज्ञातास्वभावी चैतन्यनी मोटी हिंसा
छे, शुभाशुभभाव मारुं कर्तव्य छे, ते मने हित करे छे ए मान्यता मिथ्यारुचिवाळी होवाथी स्वभावनी
हिंसारूप छे.
आत्मज्ञानी एम जाणे छे के रागादि दोष छे ते मारुं खरुं स्वरूप नथी हुं तो ज्ञातास्वरूप छुं. चोथे
गुणस्थानेथी जीवने तेनी श्रद्धा यथार्थ होवा छतां भूमिकानुसार दया, दान, पूजा, भक्तिना शुभभाव होय
छे. बे कषायनी चोकडीना अभाव पूर्वक ज पांचमुं गुणस्थान होय छे, त्यां तेने योग्य दया, दान, पूजा,
भक्ति उपरान्त अणुव्रतना शुभभाव होय छे. मुनिदशामां त्रण कषायना अभाव पूर्वक महाव्रतादि २८
मूळगुण होय छे ते रागभावोने तेओ आस्रव–(मेल) माने छे. (जेम जळमां सेवाळ छे ते मेल छे तेम.)
परपदार्थ आत्माने दुःखदाता नथी, पण भूलरूप आस्रवो ज दुःखदाता छे. जे जीव पोतानी प्रभुताने
भूल्यो ते जीव पामरतामां अटक्यो छे. पोतानी ऊंधाईथी ज पुण्य–पाप–विकारनी ममतामां अटकवुं ते रोग
छे. शरीरनो रोग ते रोग नथी. शुभाशुभभाव बेउ विकार छे, तेनाथी पोतानुं होवापणुं मानवुं, हित मानवुं,
तेमां कर्ताकर्मपणुं मानवुं ते मोटो रोग छे. कह्युं छे के:–
“आत्मभ्रान्ति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण;
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि औषध विचार ध्यान”
साचा निमित्तो प्रत्ये तो राग करवा जेवो छे एवी मान्यता के परवस्तु मारी अने हुं एनो–एम
पृथक् चीजमां एकताबुद्धि करवी ए मोटो भ्रम छे. ज्ञातास्वभाव अखंड आनंदमय छे तेनाथी विपरीत पुण्य
पाप–रागादि भाव छे. तेनी रुचि ते मोटो रोग छे, त्रिकाळीज्ञानस्वभावनी अधिकताना अनुभववडे ते रोग
टळे छे. आवो उपाय समजे तो तेमां स्वसन्मुखतारूप विचार अने ध्यान ते उपादान कारण छे अने गुरु
आज्ञा निमित्त कारण छे. ज्यां जीव निश्चयथी जाग्यो त्यां व्यवहार अने तेनुं ज्ञान होय छे. संयोग–निमित्त
अने व्यवहार उपर अज्ञानीनी द्रष्टि अने वजन छे; तेथी “प्रथम व्यवहार जोईए, जोईए” एम मानी