Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : २११
ते तत्त्वनो विरोध करे छे. ज्ञानी स्व–पर प्रकाशक ज्ञानथी जाणे छे के व्यवहार होय छे.
ज्यां लगी आत्माना आश्रये भेदज्ञान कर्युं नथी, त्यां लगी तेना व्यवहारने व्यवहार कारण पण
कहेवातुं नथी. त्यागी थयो, महाव्रत अनंतवार जीवे पाळ्‌यां पण ते राग छे. उदयभाव छे, ते आत्मा नथी–
आत्मानो धर्म नथी अने ते धर्मनुं कारण पण नथी. धर्मना नामे करेलो ए शुभराग पुण्यबंधनुं कारण छे,
पण धर्मनी शरूआतनुं कारण नथी एवो त्रणेकाळे वीतरागना मार्गनो नियम छे.
में आ वेश ग्रहण कर्यो अने आटली परचीजोनो त्याग कर्यो ए मान्यता बे द्रव्यमां एकताबुद्धि
बतावे छे, केमके परचीज ताराथी भिन्न छे, त्याग रूपे ज छे, ते तारामां नथी; तुं तो भगवान ज्ञानमय
आत्मा छो, स्वयंज्ञान छो, तारे स्व–पर प्रकाशक ज्ञान होय पण परनां ग्रहण–त्याग न होय. मोहथी माने
भले, पण त्रणकाळमां परनो कर्ता हर्ता कोई आत्मा थई शकतो नथी.
ज्ञानीने पूर्ण दशा न थाय त्यां सुधी भूमिकानुसार रागादि आवे छे पण तेने अंतरमां पोताना
मानतो नथी, केमके द्रष्टिमां–(श्रद्धामां) एकरूप पूर्ण स्वभावनो ज आदर वर्ते छे. विकारनुं कर्ताकर्मपणुं
अथवा आदर ज्ञानीने जराय नथी.
जेने विकारनो आदर छे, तेने संयोग अने आस्रवनी भावना छे, अने त्रिकाळ अविकारी स्वभावनो
तिरस्कार छे. अज्ञानमां स्वभाव–विभाव के हित–अहितनो साचो निर्धार होतो नथी महाव्रत पाळे, नग्नमुनि
थई शुक्ललेश्याना उजळा परिणाम करे, बब्बे मासना उपवासना पारणे आहार लेवा आवे त्यां निर्दोष
मळे तो ज ले, कोई अपमान करे तोय क्रोध न करे छतां द्रष्टि राग अने शरीरनी क्रिया उपर छे तेथी
अंशमात्र पण विवेक तेने आत्मामां ऊगतो नथी, करोडपूर्वनुं आयुष्य होय त्यां सुधी एवा ऊंचा प्रकारना
शुभभाव करे तो तेना फळमां नवमी गै्रवेकमां ऊपजे पण तेथी शुं? तेणे रागनी किंमत करी पण
भेदज्ञानद्वारा अरागी परमेश्वरपदनो धारक हुं त्रणेकाळे ज्ञानस्वभावी छुं एनी किंमत करी नथी. आत्मामां
आत्मानी ओळख अने माहात्म्य थाय तो अनादिनी भ्रान्ति जाय. साची जिज्ञासा अने अभ्यास वडे
आत्मानी ओळखाण करी भ्रान्ति टाळवी ते सुखनो साचो उपाय छे; ज्ञानीनी आज्ञा “स्वसन्मुख थवानी”
छे, ते आज्ञा पथ्य छे.
शुभाशुभ भावनुं स्वामित्व छे ते भ्रान्ति छे, ज्ञान थतां ज भ्रान्ति टळी जाय छे, जेम जळमां सेवाळ
छे ते मेल छे, तेम आत्मानी वर्तमानदशामां जे शुभाशुभभाव छे ते मेल छे. अनात्मा छे, आत्मभाव नथी.
त्रिकाळी निर्मळ आनंद स्वभावने उपादेयपणे जाणतां क्षणिक मलिन भावनो आदर–प्रेम छूटी जाय छे,
अज्ञानीने संयोग अने विकारनो ज प्रेम छे तेथी तेने ते पोताना माने छे.
शुभाशुभभाव (–पुण्य–पाप) दोष छे, एम जे न माने ते तेने करवा जेवा माने, हितकारी माने पण
टाळवा योग्य न माने. प्रथम श्रद्धामां त्रिकाळी निर्दोष आत्माने अंदरद्रष्टि द्वारा पकडे तो ज ते दोषने दोषरूपे
जाणी तेने टाळी शके. ते दोष क्षणिक छे एम माने तो तेने स्थाने निर्दोषता लाववा मागे. त्रिकाळी निर्दोष
स्वभावना आश्रये दोष टळी शके छे. जो ते क्षणिक न होय तो ते ध्रुवस्वभाव होय अने तेथी ते टळी शके
नहि. जे दोष छे तेने टाळी निर्दोष (सुखी) थवुं छे, तो ते दशा क््यांथी आवशे? क््यांय बहारथी तो आवे
तेम नथी, पूर्वनी पर्याय गई तेमाथी पण आवे तेम नथी, परंतु अंदरमां अनंतगुणसम्पन्न त्रिकाळी
पूर्णनिर्दोष स्वभाव भर्यो छे ते तरफ वर्तमान ज्ञान अने वीर्यने (–पुरुषार्थने) वाळ तो निर्दोषतानी
(सुखनी) उत्पत्ति थशे.
निर्दोषता लाववी होय तो सदोषताना स्थाने निर्मळज्ञानानंदना आश्रये शुद्धदशा प्रगट करवी
जोईए.