आत्मानो धर्म नथी अने ते धर्मनुं कारण पण नथी. धर्मना नामे करेलो ए शुभराग पुण्यबंधनुं कारण छे,
पण धर्मनी शरूआतनुं कारण नथी एवो त्रणेकाळे वीतरागना मार्गनो नियम छे.
आत्मा छो, स्वयंज्ञान छो, तारे स्व–पर प्रकाशक ज्ञान होय पण परनां ग्रहण–त्याग न होय. मोहथी माने
भले, पण त्रणकाळमां परनो कर्ता हर्ता कोई आत्मा थई शकतो नथी.
अथवा आदर ज्ञानीने जराय नथी.
थई शुक्ललेश्याना उजळा परिणाम करे, बब्बे मासना उपवासना पारणे आहार लेवा आवे त्यां निर्दोष
मळे तो ज ले, कोई अपमान करे तोय क्रोध न करे छतां द्रष्टि राग अने शरीरनी क्रिया उपर छे तेथी
अंशमात्र पण विवेक तेने आत्मामां ऊगतो नथी, करोडपूर्वनुं आयुष्य होय त्यां सुधी एवा ऊंचा प्रकारना
शुभभाव करे तो तेना फळमां नवमी गै्रवेकमां ऊपजे पण तेथी शुं? तेणे रागनी किंमत करी पण
भेदज्ञानद्वारा अरागी परमेश्वरपदनो धारक हुं त्रणेकाळे ज्ञानस्वभावी छुं एनी किंमत करी नथी. आत्मामां
आत्मानी ओळख अने माहात्म्य थाय तो अनादिनी भ्रान्ति जाय. साची जिज्ञासा अने अभ्यास वडे
आत्मानी ओळखाण करी भ्रान्ति टाळवी ते सुखनो साचो उपाय छे; ज्ञानीनी आज्ञा “स्वसन्मुख थवानी”
छे, ते आज्ञा पथ्य छे.
त्रिकाळी निर्मळ आनंद स्वभावने उपादेयपणे जाणतां क्षणिक मलिन भावनो आदर–प्रेम छूटी जाय छे,
अज्ञानीने संयोग अने विकारनो ज प्रेम छे तेथी तेने ते पोताना माने छे.
जाणी तेने टाळी शके. ते दोष क्षणिक छे एम माने तो तेने स्थाने निर्दोषता लाववा मागे. त्रिकाळी निर्दोष
स्वभावना आश्रये दोष टळी शके छे. जो ते क्षणिक न होय तो ते ध्रुवस्वभाव होय अने तेथी ते टळी शके
नहि. जे दोष छे तेने टाळी निर्दोष (सुखी) थवुं छे, तो ते दशा क््यांथी आवशे? क््यांय बहारथी तो आवे
तेम नथी, पूर्वनी पर्याय गई तेमाथी पण आवे तेम नथी, परंतु अंदरमां अनंतगुणसम्पन्न त्रिकाळी
पूर्णनिर्दोष स्वभाव भर्यो छे ते तरफ वर्तमान ज्ञान अने वीर्यने (–पुरुषार्थने) वाळ तो निर्दोषतानी
(सुखनी) उत्पत्ति थशे.