Atmadharma magazine - Ank 211
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : २११
कंटाळे नहि. जेनी रुचि तेनी मुख्यता–महिमा–भावना अने तेनी पुष्टि थाय छे. जेनी रुचि होय तेनी
प्रीतिपूर्वक भावना कर्या ज करे छे. आत्म कल्याणमां वर्तता जीवने स्वप्नामां–जागतामां–विकल्प वाणी अने
भावनामां सहजपणे एवुं घोलन चालतुं ज होय छे.
शरीर–मन–वाणी तो पर छे, ते तारां काढ्यां जाय तेम नथी. पुण्य–पापनाभाव मेल छे अपवित्र छे;
ते पराश्रयवडे तारा ऊंधा पुरुषार्थथी थाय छे, सवळा पुरुषार्थवडे ते टळे छे. जे टळे ते जीवनुं खरुं स्वरूप
होय नहि. जेम नाळियेर छे तेमां चार वात छे:–
१–छालां, र–काचली, ३–टोपरा उपरनी रातड, अने ४–मीठुं कोपरुं, टोपरापाक करनार छालां, काचली
अने रातड काढी नाखीने ते पाक करे छे. आ उपरथी सिद्धांत एम समजवो के शरीर तो छालां समान,
काचली जडकर्म समान अने राग–द्वेष–मोह ते रातड समान मेल छे. पण ए त्रणेयथी रहित नित्य अतीन्द्रिय
ज्ञानआनंद स्वभावी आत्मा छे. तेनी अभेद प्रतीतिरूप अनुभवदशा ते आत्मानो धर्म छे.
अंक अने अक्षर भण्याविना नामुं लखे तो लीटा थाय, नामुं न थाय; तेम आत्मामां आत्म प्रसिद्धि
करनारुं लक्षण जाण्या विना, आत्मा जाणी शकाय नहि. जेने आत्मस्वभावनी किंमत नथी ते बाह्यभावने
माहात्म्य दे छे. कोई कहे छे के अमुक जीव सेवा, भक्ति, दान बहु करे छे पण ए तो रागमां रोकावानी वात
छे. सेवा, भक्ति, दानादिनाभाव ज्ञानीने पण होय छतां श्रद्धामां तेनो आदर न होय, माटे प्रथम साची श्रद्धा
करवी जोईए. शास्त्रो नवपूर्व सुधी भण्यो होय, त्यागमां महाव्रत चोकखां पाळतो होय तेथी शुं? ते
आत्मज्ञाननुं लक्षण नथी. रागादि मारुं कर्तव्य नथी, मारो त्रिकाळी ज्ञानानंद स्वभाव छे, मारी शान्ति–
शुद्धता मारामां छे एनी रुचिमां जे ऊभो छे तेने आत्मा कहीए.
शुभाशुभभाव पराश्रये थता मलिन भाव छे ते चैतन्यनी जागृतिथी विरुद्ध छे, आस्रव छे, अशुचि
छे, दुःखनुं ज कारण छे आत्मानो धर्म तेना वडे थाय नहि परंतु तेनाथी रहित स्वाश्रित निर्मळ स्वभावथी
ज धर्म थाय, त्रणेकाळे हितनो उपाय आ एक ज छे. आ सत्य नियम न माने त्यां सुधी अनादिनुं दुःख न
जाय.
अज्ञानवश बाह्य संयोगमां अनुकूळता मानी, दुःखने ज जीव सुख माने छे. ते तो जेम दरदीने वात–
पित्त कफनी तीव्र विषमताथी हरख (हर्ष) सन्निपात–त्रिदोष थाय छे अने तेथी ते खूब हसे छे तेना जेवुं छे;
अथवा केफी नशामां बेभान थई सुख माने तेना जेवुं छे. तेओ बेभान होवाथी सुखनी खोटी कल्पना करी
हर्ष माने छे.
भेदज्ञानद्वारा अंतरमां ध्रुवस्वभावने द्रष्टिमां लेतां ज अशुचिमय अनित्य अने दुःखमय सर्व
आस्रवोनी रुचि टळी जाय छे. चैतन्यनी जागृतिनो नाश करनारी जे कोई पर तरफनी वृत्ति ऊठे छे ते पुण्य–
पापमय छे. दुःखदाता ज छे ते मारुं स्वरूप नथी; एवा निर्णय वडे, स्वसन्मुख थतां ज अनादिनो विभाव
भावरूप आस्रव टळी जाय छे; क्षणिक विकार हुं नथी, तो त्रिकाळ ज्ञातास्वभावी छुं. एम भेदज्ञान थतां ज
आस्रवो अनादि प्रवाहथी होवा छतां अटकी जाय छे.
सूर्य ऊगे अने अंधारुं न टळे एम बने नहि. तेम संयोग अने विकार रहित तथा तेना कर्ता–
भोक्तापणा रहित हुं त्रिकाळ ज्ञानानंद छुं एवी द्रष्टि थई के ते ज समये मिथ्यात्वरूपी भ्रम टळी जाय छे;
वळी ते साथे तेना आवरणरूप जे निमित्त हतुं ते तुरत ज टळी जाय छे. जेम झाडनुं मूळ कपायुं त्यां पांदडां
थोडा ज काळमां सूकाये छूटको. तेम आत्मद्रष्टि थतां भ्रम दूर थाय छे ने अनादिनुं अज्ञान अटकी जाय छे ए
रीते संसारनुं मूळ कपायुं त्यां थोडा ज काळमां संसार सूकाये अने मोक्ष थये छूटको.
जेम छ पुत्रो होय अने एक दीकरी होय, ते दरेक कहे के अमे करोडपति छीए, तेमां भेद न पाडे;