: ६ : आत्मधर्म : २११
ज्ञानी अने अज्ञानीनी तुलना
सम्यग्द्रष्टिने
(१) ज्ञान–वैराग्य होवाथी विकारना
स्वामित्वनो अभाव छे.
(२) स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो
त्याग छे.
(३) स्वपरनुं भेद विज्ञान वर्ते छे.
(४) स्वमां रमे छे ने परथी विरमे
छे, तेथी ज्ञायकभावे सदा
जीवे छे.
(प) संयोग अने संयोगी भावनुं
सदा अकर्तृत्व माने छे.
(६) सदाय शांत रसनो भोगवटो छे.
(७) अकंप ज्ञानस्वभावनी–शुद्धतानी
रुचि छे तेथी सदा निःशंक–निर्भय छे.
(८) अनेकांत अमृतने आस्वादे छे.
(९) निश्चयने सदाय आदरणीय
माने छे.
(१०) अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदमां
सदा प्रीतिवंत–संतुष्ट–तृप्त
रहे छे.
(११) आराधक छे तेथी अल्पकाळमां
संसारना पारने पामे छे.
मिथ्याद्रष्टिने
(१) अज्ञान अने मोह–रागद्वेषना
स्वामित्वनो सद्भाव छे.
(२) परनुं ग्रहण अने स्वरूपनो
त्याग छे.
(३) स्वपरनुं अज्ञानमय एकत्व
वर्ते छे.
(४) स्वथी विरमे छे ने परमां
रमे छे.
तेथी सदा भावमरणे मरे छे.
(प) संयोग अने संयोगी भावनुं
सदाय कर्तृत्व माने छे.
(६) सदाय आकुळतानो भोगवटो छे.
(७) चलायमान पुण्यपापरूप पर
भावनी अशुद्धतानी रुचि छे
तेथी सदा सशंक–भयभीत छे.
(८) एकांत झेरने आस्वादे छे.
(९) व्यवहारने सदाय आदरणीय
माने छे.
(१०) ईन्द्रियज्ञान–सुखमां सदा प्रीति–
वंत–संतुष्ट तृप्त रहेवा चाहे छे
पण सदा खेद खिन्न रहे छे.
(११) विराधक छे तेथी संसारमां
अनंत काळ परिभ्रमण करे छे.
ङ्क