वैशाख : २४८७ : ७ :
वर्ष अढारमुं : अंंक ७ मो संपादक : रामजी माणेकचंद दोशी वैशाख : २४८७
अज्ञानुं ज्ञान रूपे पलटवुं
‘अज्ञान दशामां आत्मा स्वरूपने भूलीने रागद्वेषमां वर्ततो हतो,
परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता थयो हतो; हुं परनी क्रियानो कर्ता छुं अने पर मारी
क्रिया करी शके छे एम मानतो हतो, हुं क्रियाना फळनो भोगवनारो छुं एम
मानतो हतो–ईत्यादि भावो करतो हतो; परंतु हवे ज्ञानदशामां ते भावो कांई ज
नथी एम अनुभवाय छे.’–आवा अर्थनुं काव्य श्री अमृतचंद्राचार्य देव कहे छे:–
(शार्दूल विक्रीडित)
यस्माद् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं
रागद्वेष परिग्रहे सति यतो जातं क्रिया कारकैः ।
भुंजाना च यतोऽनु भूतिरखिलं खिन्नाक्रियायाः फलं ।
तद्विज्ञानघनौधमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल ।। २७७।।
अर्थ–जेनाथी (अज्ञानथी) प्रथम पोतानुं अने परनुं द्वैत थयुं
(अर्थात् पोताना अने परना सेळभेळपणारूप भाव थयो), द्वैतपणुं थतां
जेनाथी स्वरूपमां अंतर पड्युं (अर्थात् बंध पर्याय ज पोतारूप जणायो),
स्वरूपमां अंतर पडतां जेनाथी रागद्वेषनुं ग्रहण थयुं, रागद्वेषनुं ग्रहण थतां
जेनाथी क्रियाना कारको उत्पन्न थया (अर्थात् क्रिया अने कर्ता–कर्म आदि
कारकोनो भेद पड्यो), कारको उत्पन्न थतां जेनाथी अनुभूति क्रियाना
(रागनी क्रियाना, कर्म चेतनाना) समस्त फळने भोगवती थकी खिन्न थई (–
खेद पामी), ते अज्ञान हवे (–स्वसन्मुख थतां) विज्ञानघनना ओघमां मग्न
थयुं (अर्थात् ज्ञानरूपे परिणम्युं) तेथी हवे ते बधुं खरेखर कांई ज नथी.