द्वि. जेठ : २४८७ : ९ :
परंतु एना सिवाय निश्चयनयना अशुद्धनिश्चयनय आदि जेटला प्रकार शास्त्रोमां बताववामां आव्या छे ते
बधा एकी साथे ए विशेषताओ सहित द्रष्टिगोचर थता नथी, केमके तेओ एक द्रव्यना आश्रये प्रवृत्त होवा
छतां पण कोई ने कोई प्रकारे भेदनुं के उपाधि सहित वस्तुनुं ज कथन करे छे, माटे तेओ भेद कथन अथवा
उपाधिसहित द्रव्य कथननी मुख्यताथी व्यवहारनयनी मर्यादामां आवी जाय छे.
८४. श्री जयसेनाचार्यदेवे अशुद्धनिश्चयनय शुद्धनिश्चयनयनी अपेक्षाए व्यवहार ज छे एम जे कह्युं छे
ते आ ज अभिप्रायथी कह्युं छे. जेम परसंग्रहनय सिवाय अपरसंग्रहनयना जेटला अवान्तरभेद (पेटाभेद)
संभव छे तेओ स्वयं एक अपेक्षाथी अभेदनुं कथन करवावाळा होवा छतां बीजी अपेक्षाथी भेदनुं ज कथन
करे छे, माटे तेओ व्यवहारनयना भेदोमां अन्तरभूत थई जाय छे. (–समाई जाय छे) ए ज प्रकारे
शुद्धनिश्चयनय सिवाय निश्चयनयना अन्य जेटला प्रकार (भेद) बताववामां आव्या छे ए बधायनो
व्यवहारनयना पेटाभेदोमां समावेश थई जाय छे. आ उक्त कथननुं तात्पर्य छे.
८प. पंचाध्यायीमां निश्चयनय एक ज प्रकारनो छे ए सिद्ध करवा माटे जे निश्चयनयना बे भेद
मानवावाळाने मिथ्याद्रष्टि कह्या छे ते आ ज अभिप्रायथी कहेल छे, के द्रव्यना त्रिकाळी ध्रुवभावमां वस्तुत:
(खरेखर) कोई प्रकारनो भेद करवो संभव नथी अने जे गुणभेद अथवा पर्यायभेदथी वस्तुने ग्रहण करे छे
तेने द्रव्यार्थिकनय मानी शकाय नहि. पंचाध्यायीनुं ते वचन आ प्रकारे छे;– (क्रमश:)
(निश्चय–व्यवहार मीमांसा पृ. २२प)
य
लोभवडे जेनुं चित्त व्याप्त थयुं होय तेने त्रणलोकनुं राज्य
मळे तो पण तृप्ति थाय नहि, सुख पामे नहि अने भेदविज्ञानी
लोभ रहित संतोषी जीव दरिद्र–धन रहित छे तो पण निर्वाण जे
सुख तेने प्राप्त थाय छे,
(१३९३, भ. आराधना)
सर्व प्रकारनां पुद्गलद्रव्य अनंतवार आहार–शरीर–
ईन्द्रियरूप थयां ने भोगव्यां. अने अनंतवार छोड्यां; एवा सर्व
पुद्गलनो संयोग–वियोग स्वभाव छे, तेनां ग्रहण–त्यागमां शुं
विस्मय छे?
शुभरूप अने अशुभरूप (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने
शब्द) जीवने किंचित् पण सुख–दुःख करतां नथी, मोही थई तेने
देखी तेने ठीक अठीक माननार पोताना संकल्प विशेषथी सुखी
दुःखी थाय छे.