Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१२
सुधी शुद्ध आत्मानी अनुभूति थती नथी. परंतु बन्ने नयोना विषयने जाणीने ज्यारे आ आत्मा शुद्धनयना
विषयनो आश्रय करी निर्विकल्पनयरूपे परिणमे छे त्यारे एक मात्र शुद्धानुभूति ज बाकी रहे छे (बचे छे.)
बीजा बधा विकल्प सहज (एनी मेळे) पलायमान थई जाय छे.
७८. प्रमाणनी जेम नय पण बे प्रकारना छे एनुं वर्णन नयचक्र पृ. ६६ मां एक गाथा उद्धृत करीने
करवामां आव्युं छे के :–
सवियप्पं णिव्वियप्पं पमाणरुवं जिणेहि णिद्रिढ्ढं ।
तहर्विह णया वि भणिया सवियप्पाणिव्वियप्पा वी ।।
जिनदेवे सविकल्प अने निर्विकल्पना भेदथी प्रमाण बे प्रकारना कह्या छे तथा ते ज प्रकारे सविकल्प
अने निर्विकल्पना भेदथी नय पण बे प्रकारना कह्या छे.
८०. आ रीते शुद्धानुभूतिना काळमां आत्माने सविकल्प नयोथी अतिक्रान्त थई जवा छतां पण
निश्चयनयना विषयनो आश्रय कई रीते बनी रहे छे ए स्पष्ट थई जाय छे.
८१. अ. आ परमभावग्राही निश्चयनय छे. एना विना निश्चयनयना जेटला भेद शास्त्रोमां बताव्या
छे तेओ बधाय व्यवहारनयमां ज समाई जाय छे. उदाहरण माटे समयसार गाथा ८३ मां कह्युं छे के आत्मा
आत्माने ज करे छे अने आत्मा आत्माने ज भोगवे छे तो ए कथन परथी भेदज्ञान कराववा माटे करवामां
आव्युं छे. तेथी ते पर्यायार्थिकरूपनिश्चयनय छे. तात्पर्य ए छे के ए ठेकाणे पर्यायना कथननी मुख्यता
होवाथी द्रव्यमां भेद–व्यवहारनी प्रसिद्धि थई छे. माटे तेने व्यवहारनयनो विषय ज जाणवो जोईए.
८१. समयसार कळश ६२ मां जे एम कहेवामां आव्युं छे के,–आत्मा ज्ञान छे, ते स्वयंज्ञान छे, ते
ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? तो एमां पण पर्यायना कथननी मुख्यता होवाथी तेने पण व्यवहारनयनो
विषय जाणवो जोईए.
आ प्रकारे अन्यत्र ज्यां कोई ठेकाणे एक द्रव्यना आश्रये पर्यायनुं कथन करीने तेने निश्चयनयनो
विषय कह्यो पण होय तो ते निश्चयनय भूतार्थने स्वीकार करे छे ए अभिप्रायने ध्यानमां राखीने ज कह्युं छे.
परंतु परमभावग्राहक निश्चयनयना विषयभूत भूतार्थमां अने आ भूतार्थमां मौलिक (मूळ संबंधी) भेद छे
जेनुं स्पष्टीकरण अमे पहेलां ज करी दीधुं छे.
८र. तात्पर्य ए छे के शुद्धनिश्चयनय सिवाय निश्चयनयना बीजा जेटला भेद–प्रभेद शास्त्रोमां
द्रष्टिगोचर थाय छे तेओ सर्व विशेषणयुक्त वस्तुनुं विवेचन करवावाळा होवाथी व्यवहारनय ज जाणवा
जोईए. आ वातने ध्यानमां राखीने श्री जयसेनाचार्ये समयसार गा. १०२ नी टीकामां आ वचन कह्युं छे:–
अज्ञानी जीवोऽशुद्धनिश्चयनयेन ×××”
अज्ञानी जीव अशुद्ध उपादानरूप अशुद्धनिश्चयनयथी मिथ्यात्व अने रागादिभावोनो ज कर्ता छे,
द्रव्यकर्मनो कर्ता नथी. ते अशुद्धनिश्चयनय जो के ‘द्रव्यकर्मनो कर्ता जीव छे’ तेने (एवा कथनने) स्वीकार
करवावाळा असद्भूतव्यवहारनी अपेक्षाए निश्चय संज्ञा पामे छे तो पण शुद्धनिश्चयनयनी अपेक्षाए ते
व्यवहार ज छे.
८३. निश्चयनयना कथनमां त्रण विशेषताओ होय छे. (१) ते अभेदग्राही होय छे, (२) ते एक
द्रव्यना आश्रये प्रवृत्त थाय छे. अने (३) ते विशेषण रहित होय छे. परंतु व्यवहारनयनुं कथन तेनाथी
उलटुं होय छे. हवे जो आ द्रष्टिने ध्यानमां राखीने विचार करीए तो शुद्धनिश्चयनय ज एक मात्र निश्चयनय
ठरे छे, केम के तेना विषयमां गुण–पर्यायरूपथी कोई प्रकारनो भेद परिलक्षित (लक्षणद्वारा जणायेल) न
होवाथी ते मात्र द्रव्यना आश्रये प्रवृत्त थाय छे.