Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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द्वि. जेठ : २४८७ : :
लेवाथी ज तेने धीरे धीरे तद्रूप अवस्था प्रगट थाय छे.
७४. आ ज भावने ध्यानमां राखीने श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसार गाथा १८६ मां पण कहे छे के –
“जे आत्माने शुद्ध जाणे छे (अनुभवे छे) ते शुद्ध ज आत्माने प्राप्त करे छे अने जे तेने अशुद्ध जाणे
आनी पुष्टि करतां श्री अमृतचंद्राचार्य कळश नं. १२२ मां कहे छे के :–
इदमेव तात्पर्य हेयो शुद्धनयो नहि
नास्तिबन्धस्तद त्यागात्तत्यागाद्वं ध एव हि ।। १२२।।
“अहीं ए ज तात्पर्य छे के शुद्धनय हेय (–त्यागवा योग्य) नथी; कारण के तेना अत्यागथी बंध थतो
नथी अने तेना त्यागथी बंध थाय ज छे” १२२,
७प. माटे श्री कुन्दकुन्दाचार्ये ज्यां एम कह्युं छे के कर्म जीवमां बद्ध छे अथवा अबद्ध छे तेने एक एक
नयनो पक्ष जाणो. त्यां तेमनुं ए रीते कथन करवानो अभिप्राय बन्ने नयोना विषयनुं ज्ञान करावी अने ते
संबंधी थता विकल्प (राग) ने छोडावी पोताना ध्रुव स्वभाव तरफ झुकाववानो रह्यो छे, केमके तेओ सारी
रीते जाणता हता के जे एम माने छे के हुं कर्मथी सर्वथा अबद्ध छुं तेने करवा माटे कांई बाकी रहेतुं नथी.
साथे ज तेओ ए पण सारी रीते जाणता हता के जे एम माने छे के हुं कर्मथी सर्वथा बद्ध छुं ते प्रयत्न करवा
छतां पण कर्मथी त्रण काळमां मुक्त थई शकतो नथी. माटे तेमणे एकान्तना आग्रह सहित बन्ने नयोना
विकल्प छोडावी निर्विकल्प थवा माटे उक्त वचन कह्यां छे तेमां संदेह नथी.
केमके एम थया विना अनादि काळथी चाली आवती रागनी कर्तापणानी बुद्धि छूटी शकती नथी.
परंतु आ प्रकारे अनेकान्तमार्गनो अनुसरण करनारो थईने पण साधक हेयरूप व्यवहारनयनो आश्रय न
लेतां, उपादेयरूप निश्चयनयनो ज आश्रय ले छे, केमके मोक्षरूप प्रयोजननी सिद्धि माटे जे सर्वथा हेय (–
छोडवा योग्य) छे ते आश्रय करवा योग्य होई शके नहि. अने जे सर्वथा उपादेय छे तेनो आश्रय लीधा
विना ईष्ट प्रयोजननी सिद्धि थई शकती नथी.
७६. अध्यात्मशास्त्रोमां ‘हुं रागी छुं, द्वेषी छुं’ ईत्यादिरूप प्रतीतिथी मुक्त करावी ‘हुं एक छुं. नित्य
छुं, शुद्ध छुं, ज्ञायकभाव छुं’ ईत्यादिरूपे प्रतीति सर्वत्र आ ज अभिप्रायथी कराववामां आवी छे. बन्ने नयोना
विषयने जाणवा ते जुदी वात छे अने जाणीने व्यवहारनयना विषयमां हेयबुद्धि करवी अने निश्चयनयना
विषयमां उपादेयबुद्धि करी तेनो आश्रय लई तन्मय थवुं ते जुदी वात छे. पक्षातिक्रान्त थवानुं पण आ ज
तात्पर्य छे. ए ज कारण छे के श्री कुन्दकुन्दाचार्ये एक तरफ तो साधक जीवने नयपक्षना रागने त्यागवानो
उपदेश आप्यो छे अने बीजी तरफ निश्चयरत्नत्रयनी प्राप्ति माटे निश्चयनयना विषयनो आश्रय लेवानो
उपदेश आप्यो छे. आ प्रकारे पक्षातिक्रान्त थवा माटे व्यवहारनय केम हेय छे अने निश्चयनय केम उपादेय छे
ए स्पष्ट थई जाय छे.
७७. अहीं एटलुं विशेष जाणवुं जोईए के सविकल्प अने निर्विकल्पना भेदथी नय बे प्रकारना छे.
समयसार गाथा १४२ तथा १४३मां सविकल्पनयने छोडवानो उपदेश दईने निर्विकल्पनयनो आश्रय लेवानी
वात कहेवामां आवी छे, अने ते ज समयसार गाथा ११, १२ तथा १४ मां आत्मानी केवी अनुभूति थवाथी
निर्विकल्पनयनो आश्रय थाय छे तेनुं वर्णन करवामां आवेल छे.
७८. तात्पर्य ए छे के ज्यां सुधी आ आत्मा, व्यवहारनयथी आत्मा आवो छे अने निश्चयनयथी
आत्मा आवो छे एवा विकल्पोमां फसातो रहे छे त्यां