Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २१२
१९९६ नी सालमां गिरनारजी तीर्थक्षेत्रे यात्रार्थे गया त्यारे सांभळ्‌युं हतुं के त्यां जैनमंदिरोमां
कारीगरोने नकशीकाममां जेटली पथ्थरनी भूकी काढी आपे तेटली चांदी देता; ए सांभळीने कहेलुं के–धन
खरच्ये खूटे नहि. पण पुण्य खूटे तो ज खूटे; न खरचे तो पण पुण्य खूटतां लक्ष्मी चाली जाय छे. जेम
कूवामां पाणीनो प्रवाह छे तेमांथी गमे तेटलुं पाणी बहार खेंचे तो पण खूटे नहि, तेम भगवान आत्मामां
बेहद ज्ञानआनंदनो अक्षय भंडार भर्यो छे. तेमां एकाग्रता करतां ज्ञान–आनंद प्रगटे छे. पण तेने भूले तो
राग–ईच्छानो प्रयत्न कर्या करे. मंदकषाय करे छतां साचो आनंद हाथ न आवे. पण सर्व प्रकारना रागथी
पार अक्षयचिदानंद स्वभाव ध्रुव छे तेमां अंतरद्रष्टि दईने एकाग्रता करे तो चैतन्यसागर ऊछळे छे.
एकवार करेडिया करी अंदर भूस्को मार, चैतन्यप्रभुने द्रष्टिमां लई, पुण्यादि विकारनी रुचि छोडी अंदरमां
देख, तो सदाय परमानंद शान्तिनो सागर पोते ज छे.
“वचनामृत वीतरागनां, परमशान्त रस मूळ,
औषध जे भव रोगनां, कायरने प्रतिकूळ.”
कायर थयो तेने शूरवीरपणुं बेसतुं नथी.
पावैयानुं द्रष्टान्त:–
जामनगरमां विभाजी जाम नामे राजा हता, तेमनी पासे हीजडा (नपुंसको) नुं टोळुं आवीने कहे छे
सिकंदर सम्राटनुं काव्य आवे छे, “अबजोनी मिल्कत आपतां पण ए सिकंदर ना बच्यो, मारो
जनाजो ते हकीमोने खभे उपडावजो” एम कहीने