Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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द्वि. जेठ : २४८७ : १प :
मरी गयो अने एवा तो अनंता जीव मनुष्यत्वने गुमावी चाल्या गया; पाई पण साथे न आवी. जे मनुष्य
पासे लक्ष्मी छे छतां दानमां देतो नथी. शरीर मनुष्यनुं मळ्‌युं छतां ईन्द्रियोने वश करीने ब्रह्मचर्य आदि संयम
पाळतो नथी, भण्यो–गण्यो पण कषायनी अग्नि मंद पाडे नहि, त्यागी व्रती थाय ने कलेशीपणुं छोडे नहि तो
तेनुं बधुं व्यर्थ छे. घणां शास्त्रो भण्यो होय पण आत्मा तरफ द्रष्टि न राखे, शान्ति प्रगट न करे तो तेनुं
भणेलुं बधुं व्यर्थ छे.
अत्यारे तो नास्तिकतानो प्रचार वध्यो छे; त्यां मंदिर–भगवान वीतरागदेवनी मूर्ति अने तेना
दर्शननी भावना कोण करे? सहेजे विना कष्टे धर्मश्रवणनो योग मळी जतो होय तो घरे तथा दुकाने पूछे के
हवे मारे लायक अहीं काम बाकी नथीने तो धर्म सांभळवा जाउं एम धर्मनो नंबर छेल्लो राखवा मागे छे.
संसारमां रखडवानी रुचिने प्रथम नंबर अने धर्म छेल्ला नंबरमां तो तारो नंबर दुर्गतिमां ज छे. माटे
आचार्यदेव करुणा लावीने कहे छे के गृहस्थदशामां पापथी बचवा माटे दिन–दिन (हंमेशा) दान कर, खास
पुरुषार्थ लावीने धर्ममां लाग. स्थिर न रही शके त्यां सुधी देवपूजा, गुरुजनोनी सेवा, विनय, स्वाध्याय,
संयम अने ईच्छा–निरोधरूप तप तथा दाननी प्रवृत्ति गृहस्थधर्ममां मुख्य होय ज छे. जो ते नथी तो तेनुं
गृहस्थजीवन व्यर्थ छे.
भगवान अमृतचंद्राचार्य समयसार गा. १४ कळश नं. १२ मां
पण कहे छे के शुद्धनयने मुख्य करी आवो अनुभव कर्ये आत्मदेव प्रगट
प्रतिभासमान थाय छे:–
भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधी
र्यद्यंतः किल कोऽप्पहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्बमहिमा व्यक्ततोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मफलं कपंकविफलो देवः स्वयं शाश्वतः ।। १२।।
अर्थ :– जो कोई सुबुद्धि (सम्यग्द्रष्टि) भूत, वर्तमान अने भावि
एवा त्रणे काळनां कर्मोना बंधने पोताना आत्माथी तत्काळ–शीघ्र भिन्न
करीने तथा ते कर्मना उदयना निमित्तथी थएल मिथ्यात्व (अज्ञान) ने
पोताना बळथी (पुरुषार्थथी) रोकीने अथवा नाश करीने अंतरंगमां
अभ्यास करे–देखे तो आ आत्मा पोताना अनुभवथी ज जाणवायोग्य
जेनो प्रगट महिमा छे एवो व्यक्त (अनुभव गोचर) निश्चल, शाश्वत,
नित्य कर्मकलंक–कादवथी रहित–एवो पोते स्तुति करवायोग्य देव
विराजमान छे. भावार्थ–शुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो सर्व
कर्मोथी रहित चैतन्यमात्रदेव अविनाशी आत्मा अंतरंगमां पोते विराजी
रह्यो छे. आ प्राणी–पर्यायबुद्धि बहिरात्मा तेने बरार ढूंढे छे ते मोटुं
अज्ञान छे. १२.