पासे लक्ष्मी छे छतां दानमां देतो नथी. शरीर मनुष्यनुं मळ्युं छतां ईन्द्रियोने वश करीने ब्रह्मचर्य आदि संयम
पाळतो नथी, भण्यो–गण्यो पण कषायनी अग्नि मंद पाडे नहि, त्यागी व्रती थाय ने कलेशीपणुं छोडे नहि तो
तेनुं बधुं व्यर्थ छे. घणां शास्त्रो भण्यो होय पण आत्मा तरफ द्रष्टि न राखे, शान्ति प्रगट न करे तो तेनुं
भणेलुं बधुं व्यर्थ छे.
हवे मारे लायक अहीं काम बाकी नथीने तो धर्म सांभळवा जाउं एम धर्मनो नंबर छेल्लो राखवा मागे छे.
संसारमां रखडवानी रुचिने प्रथम नंबर अने धर्म छेल्ला नंबरमां तो तारो नंबर दुर्गतिमां ज छे. माटे
आचार्यदेव करुणा लावीने कहे छे के गृहस्थदशामां पापथी बचवा माटे दिन–दिन (हंमेशा) दान कर, खास
पुरुषार्थ लावीने धर्ममां लाग. स्थिर न रही शके त्यां सुधी देवपूजा, गुरुजनोनी सेवा, विनय, स्वाध्याय,
संयम अने ईच्छा–निरोधरूप तप तथा दाननी प्रवृत्ति गृहस्थधर्ममां मुख्य होय ज छे. जो ते नथी तो तेनुं
गृहस्थजीवन व्यर्थ छे.
र्यद्यंतः किल कोऽप्पहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्बमहिमा व्यक्ततोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मफलं कपंकविफलो देवः स्वयं शाश्वतः ।। १२।।
करीने तथा ते कर्मना उदयना निमित्तथी थएल मिथ्यात्व (अज्ञान) ने
नित्य कर्मकलंक–कादवथी रहित–एवो पोते स्तुति करवायोग्य देव
रह्यो छे. आ प्राणी–पर्यायबुद्धि बहिरात्मा तेने बरार ढूंढे छे ते मोटुं