Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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द्वि. जेठ : २४८७ : १७ :
परमात्मा समान छे पण वर्तमान दशामां तेना दोषनो–अपलक्षणनो पार नथी.
कोई कोईनी दशाने फेरवी न शके. सर्वज्ञ परमात्मा थया तेओ एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकना
सर्व पदार्थोने एक साथे जाणे पण कोईनी अवस्थाने जराय बदलावी न शके. आंख पण न हले एवो लकवा
थाय छे. आम शरीरनी स्वतंत्रता ते तेनी व्यवस्था छे. तेनाथी चैतन्यप्रभु भिन्न छे, जेम पाणीमां सेवाळ
भिन्न छे अने सेवाळथी पाणी भिन्न छे तेम देहथी आत्मा जुदो छे.
गुरुए शिष्यने कह्युं के:– पाणीमां पाशेर मीठुं नाख, पछी बीजे दिवसे कह्युं: पाछुं लई आव. हाथ
नाखीने जुए तो न देखाय. आंखे न देखाय, पछी गुरुए कह्युं के चाखीने जो तो जणाशे. तेम देहमां
चैतन्यमूर्ति आत्मा जुदो छे, ते आंख आदि ईन्द्रियोथी न देखाय, पण तेना चैतन्य ज्ञाता–द्रष्टा लक्षणथी
स्पष्ट जणाय एवो छे. देह मंदिरमां ज्ञानपिंड आत्मा देहथी भिन्न छे अने पुण्य–पापनी वृत्तिथी पण
भिन्न छे.
सत्यने शोधवुं–मेळववुं होय तो बहु विचार पूर्वक प्रयत्नद्वारा निर्णय करवो पडशे. अहीं आचार्यदेव
शुद्धभाव अधिकार वर्णवे छे शरीर अजीव छे, तेनुं दरेक रजकण स्वतंत्र छे. मरतां पहेलां वाचा बंध थाय,
जीभनो लवो न वळे त्यां शुं आत्मा बंध थई गयो? ना, आत्मा तो छे–ते शरीर, वाणी वगेरेनी क्रिया
पहेलां पण करी शकतो न हतो ने अत्यारे पण करी शकतो नथी. जडथी जुदा पोताना आत्मानो निर्णय न
थाय तेने क्षणिक विकारथी जुदो एवो त्रिकाळी शुद्ध आत्मानो निर्णय कदी पण थई शके नहि.
हुं एक जीव छुं. एवो विकल्प ऊठे ते पण आत्माना स्वभावमां नथी. जेम नाळियेरना गोटामां सफेद
मीठाश भरी छे तेमां छालां, काचली अने रातड नथी, ते तो बहारनो भाग छे. तेम भगवान आत्मा आ
जड शरीररूपी छालामां नथी, आठकर्म–नशीब कहेवाय छे तेमां पण नथी, वळी, पुण्य–पापरूपी रातड ते पण
आत्मा नथी, ते बधाथी रहित त्रिकाळ शुद्धज्ञान–आनंदमय आत्म वस्तु अंदरमां पडी छे तेनी द्रष्टि करी तेमां
लीनता करतां साचा आनंदनो स्वाद आवे छे. आत्मानी वर्तमानदशामां पुण्य–पापनी वृत्ति नवी–नवी
ऊपजे छे. ते आखी वस्तु नथी; अने ते आत्मामां प्रवेश पामे एवी नथी.
आत्मामां सात तत्त्वना विकल्प ऊठे ते मूळ पदार्थमां नथी, वर्तमान पर्यायमां ते होवा छतां तेनी
उपेक्षा करनारी अंतरस्वभावनी द्रष्टिथी मूळस्वभावने जोवाथी एकरूप ध्रुवस्वभाव जोई शकाय छे.
नवतत्त्वना विकल्पनी आडमां–शुभरागरूपी व्यवहारना प्रेममां अंर्ततत्त्व द्रष्टिमां आवतुं नथी. माटे ते
शुभरागनी वृत्ति पण प्रथमथी ज श्रद्धामांथी छोडवी पडशे. तेनी उपेक्षा करवी पडशे. जेने हित करवुं होय,
स्वतंत्रता प्रगट करवी होय, अतीन्द्रिय आनंदना वेदनमां आववुं होय तेणे पराश्रयनी–पुण्य–पापनी रुचि
छोडीने, सहज स्वभाविक त्रिकाळी ज्ञायक वस्तु छे तेनो एकनो ज आदर करवो.
मुनि पोतानी ओळखाण आपे छे के:–हुं केवो छुं.? के सहजज्ञानमय वस्तु छुं, रागमय नथी,
वैराग्यरूपी शिखरनो शिखामणि छुं. अने पांच ईन्द्रियोना फेलावथी रहित छुं. पोते वनवासी भावलिंगी नग्न
दिगम्बर मुनि हता, सर्वज्ञ वीतरागे जेवो आत्मा कह्यो छे तेवो ज अंतर अनुभवथी जाणीने तेमां निश्चलद्रष्टि
करी तेमां लीन थई वारंवार तेनो अनुभव करतां हता. ते पोते पोतानी वर्तमानदशा बतावी पोताना
स्वभावनी अने आनंदनी वात करे छे. स्मशान वैराग्यनी वात नथी. ‘हाड बळे जेम लाकडी, केश बळे जेम
घास’ एवुं देखीने, तथा