Atmadharma magazine - Ank 212
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : २१२
हजारो रूपिया गया, घरमां कलेश वगेरे देखी वैराग्य करे ते वैराग्य नथी. अंतरमां पुण्य–पाप रहित त्रिकाळी
ज्ञानानंदघन स्वभाव पड्यो छे तेनी रुचि, अपेक्षा अने परभावनी सहज उपेक्षा थाय तेने सहज
स्वाभाविक वैराग्य कहेवाय छे. अमे आत्मा छीए, ज्ञाता–द्रष्टा सुखशक्तिनो भंडार छीए, पुण्य–पापनी
वृत्ति ऊठे ते विरुद्धभाव छे. जेने पुण्य–पाप अने तेना संयोगमां ठीक–अठीक भासे छे तेने वैराग्य नथी.
विषमता छे.
आत्मज्ञानी दीपचंदजी साधर्मी ‘अनुभव प्रकाश’ मां लखे छे के ‘अरे आत्मा! तेरी अशुद्धता भी
बडी’ जेम मकोडो पगमां चोंटे, पछी उखेडतां केड तूटे पण छूटे नहि. तेम आ आत्मा अज्ञानवडे पुण्य–
पापनी लागणीने एवो चोंट्यो छे–के कोईनुं माने नहि. आ काळे तो पुण्य सारां मानवां जोईए. व्यवहार
प्रथम जोईए एम रागना प्रेममां अंध थयेलो त्रिकाळी अरागीस्वभावमां रुचि करी शकतो नथी. भाई!
धीरो था अनादिनी पराश्रयनी द्रष्टि छे ते बदलावी अंदर देख, चिदानंद स्वभाव विकारथी जूदो ज छे.
अनादिनी आ ऊंधी पकडमां हित नथी. अपूर्व द्रष्टिनो महिमा लाव, ध्रुवस्वभावनी द्रष्टि थतां नित्यानंदना
स्वाद सहित सहज–स्वाभाविक वैराग्य थाय छे. टीकाकार मुनि कहे छे के अमे आवा सहज वैराग्यमां वर्तीए
छीए, अमारो आत्मा आवो छे. आखा संसारथी विमुख–उपेक्षावान छीए. तमे पण आवी उपेक्षा अने
आत्मानी अपेक्षावडे स्व–सन्मुख थाओ.
जेम कोई शत्रुने मित्र मानीने तेने पडखे चड्यो, भूलनी खबर पडतां फरी जाय. तेम अज्ञानी राग
द्वेष मोहने पडखे चडीने पोताना आत्माने भूली गयो हतो तेने कहे छे के हवे रुचिनुं पडखुं फेरवीने, अंदर
त्रिकाळी शुद्ध आत्माने जो तो अपूर्व आनंद आवशे.
वळी, मुनि केवा छे? के देहमात्र परिग्रहना धारक छे. पांच ईन्द्रियना फेलावथी रहित अने अतिन्द्रिय
ज्ञानआनंदना फेलाव सहित, चिन्मात्र छे. तुं पण अंतरनी वस्तुपणे एवो छो.
आत्मामां स्वभाव द्रष्टि अने लीनता थतां ईन्द्रियो तरफनो रागरूप फेलाव अटकी जाय छे. आ वात
अजाण्याने कठण पडे छे. बी. ए. नी जेम ऊंची भूमिकानी वात नथी पण धर्मनुं प्रथम पगथियुं जे
सम्यग्दर्शन छे तेनी वात छे, सम्यग्दर्शन थतां पुण्य–पापनो प्रेम उडी जाय छे. अतीन्द्रिय आत्मा उपर द्रष्टि
पडे छे अने तेनो फेलाव थाय छे. अल्प रागादि होवा छतां तेनो फेलाव नथी.
खाता–पीता देखाता होवा छतां स्वरूपमां सतत जोडाण करे छे ते जैनयोगी छे. पुण्य–पापनी उपेक्षा
अने स्वभावनी सन्मुखता अने सावधानी जेणे करी तेने ईन्द्रियोनो फेलाव रोकाई जाय छे.
स्वद्रव्यमां जोडाय ते तीक्ष्ण बुद्धिवान छे, पुण्य–पापमां प्रेमवाळाने स्थूळ लक्ष्यवाळा कह्या छे जे बुद्धि
आत्माने हणे तेने तीक्ष्ण कहेता नथी. परथी भेदज्ञान करी आत्मामां ठरे तेने तीक्ष्ण एटले सूक्ष्म बुद्धिवान
कहीए.
आत्मा ध्रुव चैतन्य वस्तु छे, वास्तु शेमां थाय. मकान होय तेमां थाय. तेम अनंतज्ञान–आनंद आदि
शक्तिरूप गुणो जेमां वसेला छे एवो आत्मा ध्रुव वस्तु छे. अपरिमितज्ञान, अनंतदर्शन, अनहदसुख,
अद्भुतवीर्य अने अपार सुख–शांतिथी भरेलो एवो आ आत्मा छे. आवा स्वद्रव्यने पकडवामां काम करे ते
बुद्धितीक्ष्ण छे. धर्मीजीवने तीर्थयात्रा, देवशास्त्रगुरुनो विनय–भक्ति, दानादिना शुभभाव आवे पण तेने ते
धर्म के धर्मनुं कारण मानतो नथी–जे भाव जेम छे तेम तेने जाणवा तेमां आत्माना ज्ञाननी मर्यादा छे. झीणा
मोतीने पकडवामां साणसो काम न आवे पण सोनीनी समाणी काम आवे, तेम अतीन्द्रिय आनंदमय
आत्माने पकडवामां घणी धीरज सहित तीक्ष्ण बुद्धि जोईए.