ज्ञानानंदघन स्वभाव पड्यो छे तेनी रुचि, अपेक्षा अने परभावनी सहज उपेक्षा थाय तेने सहज
स्वाभाविक वैराग्य कहेवाय छे. अमे आत्मा छीए, ज्ञाता–द्रष्टा सुखशक्तिनो भंडार छीए, पुण्य–पापनी
वृत्ति ऊठे ते विरुद्धभाव छे. जेने पुण्य–पाप अने तेना संयोगमां ठीक–अठीक भासे छे तेने वैराग्य नथी.
विषमता छे.
पापनी लागणीने एवो चोंट्यो छे–के कोईनुं माने नहि. आ काळे तो पुण्य सारां मानवां जोईए. व्यवहार
प्रथम जोईए एम रागना प्रेममां अंध थयेलो त्रिकाळी अरागीस्वभावमां रुचि करी शकतो नथी. भाई!
धीरो था अनादिनी पराश्रयनी द्रष्टि छे ते बदलावी अंदर देख, चिदानंद स्वभाव विकारथी जूदो ज छे.
अनादिनी आ ऊंधी पकडमां हित नथी. अपूर्व द्रष्टिनो महिमा लाव, ध्रुवस्वभावनी द्रष्टि थतां नित्यानंदना
स्वाद सहित सहज–स्वाभाविक वैराग्य थाय छे. टीकाकार मुनि कहे छे के अमे आवा सहज वैराग्यमां वर्तीए
छीए, अमारो आत्मा आवो छे. आखा संसारथी विमुख–उपेक्षावान छीए. तमे पण आवी उपेक्षा अने
आत्मानी अपेक्षावडे स्व–सन्मुख थाओ.
त्रिकाळी शुद्ध आत्माने जो तो अपूर्व आनंद आवशे.
सम्यग्दर्शन छे तेनी वात छे, सम्यग्दर्शन थतां पुण्य–पापनो प्रेम उडी जाय छे. अतीन्द्रिय आत्मा उपर द्रष्टि
पडे छे अने तेनो फेलाव थाय छे. अल्प रागादि होवा छतां तेनो फेलाव नथी.
कहीए.
अद्भुतवीर्य अने अपार सुख–शांतिथी भरेलो एवो आ आत्मा छे. आवा स्वद्रव्यने पकडवामां काम करे ते
बुद्धितीक्ष्ण छे. धर्मीजीवने तीर्थयात्रा, देवशास्त्रगुरुनो विनय–भक्ति, दानादिना शुभभाव आवे पण तेने ते
धर्म के धर्मनुं कारण मानतो नथी–जे भाव जेम छे तेम तेने जाणवा तेमां आत्माना ज्ञाननी मर्यादा छे. झीणा
मोतीने पकडवामां साणसो काम न आवे पण सोनीनी समाणी काम आवे, तेम अतीन्द्रिय आनंदमय
आत्माने पकडवामां घणी धीरज सहित तीक्ष्ण बुद्धि जोईए.