भाव आवे पण ते आदर करवा योग्य नथी. ‘व्यवहारथी निश्चय थाय, प्रथम कषायमंद होय तो आत्मानुं
ज्ञान थाय.’ एवी मान्यतावाळो राग करवाना पडखे ऊभो छे, तेनी रुचि त्यां जाय छे. वीतराग मार्गनी
विधि छोडी अविधिथी काम करवा जाय तो कदी धर्म न थाय शीरानी अविधिना द्रष्टांते–कोई बाई एवी
नीकळे के लोटने प्रथम घीमां शेकीए तो घी घणुं जोईए माटे प्रथम पाणीमां लोट शेकी नाखे. पछी घी नाखे
तो शीरो न थाय पण लोप्रीमांथी ए जाय लोट, घी बधुं बगडशे. तेम सुखी थवाना उपायरूप धर्ममां प्रथम
विधि सम्यकदर्शन छे. मिथ्यारुचिवाळो कहे के प्रथम तत्त्वज्ञान समजाय नहि. प्रथम तो व्रत, तप, दान–पूजादि
करो तो तेनाथी लाभ थाय तो एम माननारने पुण्यनां फळमां शरीररूप गूमडां मळशे. मंदकषायथी पुण्य
थाय पण धर्म त्रणकाळमां न थाय. पुण्य छोडी पापमां जवानी वात नथी, अहीं तो पुण्यनी मर्यादा समजावे
छे. धर्मीने पण पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी शुभराग–दया, दान, पूजा भक्तिना भाव आवे छे पण
अंतरनी द्रष्टिमां तेनो ते आदर करतो नथी, अंतरमां ठरवा माटे ते मददगार छे एम ते मानतो नथी.
सदाय अरूपी ज्ञाता छे, देह, मन; वाणीथी जुदो ज छे; एम भेद पाडीने अंतरमां जा तो तेनुं साचुं ज्ञान थाय.
अनेरां छे. पुण्य–पापनी वृत्ति ऊठे ते औदयिकभाव छे. त्रिकाळी स्वभावमां ते नथी; पण ते नवी नवी
मलिन पर्याय छे. जेम पाणीमां फटकडी नाखतां मेल नीचे बेसी जाय तेम आत्मामां अंतरज्ञान स्वभावने
पकडनारी तीक्ष्ण द्रष्टि द्वारा कर्मनो मेल नीचे बेसी जाय एवी अंशे निर्मळदशा थाय तेने औपशमिकभाव कहे
छे. औपशमिकभाव ते श्रद्धा–सम्यकदर्शन अने चारित्रनी एक समयनी पर्याय छे, ते त्रिकाळी स्वभावमां
नथी. ते अंशमां आखो त्रिकाळी स्वभाव आवी जतो नथी. जेम सोनानी लगडीनी वर्तमान कुंडळ आदि
अवस्था थई ते अवस्था कांई आखुं सोनुं नथी. आत्मामां अंतरद्रष्टि थतां ज औपशमिकादि अनेक भाव
थाय ते अंश छे ते आखो आत्मा नथी.
प्रतिपक्षी कर्मना अभावनी अपेक्षा आवे छे ए चार भाव एक समयनी स्थितिना होवाथी समये समये
पलटाय छे. आत्मा ए चार भावोथी अगम्य छे. एटले के ए चार भावना आश्रये ध्रुवस्वभाव न जणाय,
भेदना लक्षे अभेद जाणी शकाय नहि.
छोडी अंदर ध्रुवस्वभावनुं लक्ष करे तो सम्यकदर्शन थाय एम अहीं कहेवा मागे छे.