छतां पण कर्मसंयुक्त अवस्था न जोतां मात्र ध्रुवस्वभावी परमपारिणामिकभावरूप एक जीवनो स्वीकार करे
छे, केमके एवो नियम छे के प्रत्येकनय अंशग्राही ज होय छे माटे तेओ एक एक अंशने ग्रहण करे छे.
निश्चयनय तो केवळ सामान्यअंशने ग्रहण करे छे अने व्यवहारनय केवळ विशेषअंशने ग्रहण करे छे. साथे
ज एक नियम आ पण छे के दरेक द्रव्यनो जे परम पारिमाणिकभावरूप सामान्य अंश छे ते सदा अविकारी
होय छे, एक होय छे अने द्रव्यनी सर्व अवस्थाओमां व्याप्त थई (फेलाई) ने रहे छे तेथी नित्य तथा
व्यापक होय छे. परंतु जे विशेष अंश होय छे ते. कारण के कर्मादिकनी साथे सम्बन्ध करे छे माटे ते विकारी
हो्य छे, क्षण क्षणमां अन्य अन्य होवाथी अनेकरूप होय छे अने एक क्षण स्थायी होवाथी अनित्य तथा
व्याप्य (फेलावा योग्य) होय छे. आम ए बन्ने नय एक द्रव्यना ए बे अंशोनो स्वीकार करे छे.
आश्रय लीधा करे तो ते त्रिकाळमां कर्मरहित अवस्थाने प्रगट करी शके नहि, केमके जे जेनो आश्रय लेतो रहे
छे तेनाथी ते ज अवस्था प्रगट थाय छे. ए ज कारण छे के आचार्योए कर्मसंयुक्त अवस्थाने मटाडवा माटे
निश्चयरूप एक ध्रुवस्वभावी ज्ञायकभावनो आश्रय लेवानो उपदेश आप्यो छे. आ जीव ए बन्ने नयो द्वारा
जाणे छे तो पोताना ए बंने अंशोने ज. तेथी ज्ञान करवा माटे निश्चयनय समान व्यवहारनय पण
प्रयोजनवान् छे. पण मोक्षार्थी आश्रय एक मात्र निश्चयनयनो ले छे, केमके तेनो आश्रय लीधा विना
संसारी जीवनुं बंधनथी मुक्त थवुं संभव नथी.
प्रतिषिद्ध केम कह्यो अने निश्चयनयने प्रतिषेधक केम मान्यो तेनुं स्पष्टीकरण थई जाय छे.