द्वि. जेठ : २४८७ : प :
प्रवृत्ति थती ज नथी एम कहेवुं उचित नथी, केमके गुणस्थानोनी भूमिकानुसार तेने व्यवहारधर्म प्राप्त होय
ज छे. बन्ने नयोनी उपयोगिताने ध्यानमां राखीने एक गाथा उद्धृत करीने श्री अमृतचंद्राचार्य पण
समयसारनी टीकामां कहे छे के:–
“जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार–णिच्छए मुयह ।
एगेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेणं उण तच्यं ।।”
“जो तमे जैनधर्मने प्रवर्ताववा चाहता हो तो व्यवहार अने निश्चय ए बन्ने नयोने न छोडो,
* केमके
(व्यवहारनय) विना तो तीर्थनो नाश थई जशे अने अन्य (निश्चयनय) विना तत्त्वनो नाश थई जशे.”
६६. समाधान एम छे के साधकने पोतपोताना गुणस्थानानुसार व्यवहारधर्म होय छे तेमां संदेह
नथी पण एक तो ते बंधपर्यायरूप होवाथी साधकनी तेमां सदाकाळ हेयबुद्धि बनी रहे छे. बीजुं ते रागनो
कर्ता न होवाथी श्रद्धामां तेने आश्रय करवा योग्य मानतो नथी. साधक श्रद्धामां तो निश्चयनयने ज आश्रय
करवा योग्य माने छे पण ते जे भूमिकामां स्थित होय छे ते अनुसार वर्तन करतां ते काळमां व्यवहारधर्मनुं
जाणवुं पण व्यवहारनयथी प्रयोजनवान् गणे छे.
६७. आ आशयने ध्यानमां राखीने श्री अमृतचंद्राचार्ये आ वचन कह्युं छे के:–
“व्यवहारणनयः स्याद्यद्यपि ×××”
“जेओए साधकदशानी आ पहेली पदवीमां (शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति थवा पहेलांनी अवस्थामां)
पोतानो पग राख्यो छे तेओने जो के व्यवहारनय भले हस्तावलंब होय तो पण जे पुरुष–(आत्मा)
परद्रव्य भावोथी रहित चैतन्य चमत्कारमात्र परम अर्थने अंतरंगमां अवलोके छे (तेनी श्रद्धा करे छे तथा ते
रूप लीन थईने चारित्रभावने प्राप्त थाय छे) तेमने आ व्यवहारनय कांईपण प्रयोजनवान नथी. प.”
६८. आना उपर फरीथी प्रश्न थाय छे के जो मोक्षमार्गमां निश्चयनयनी ज मुख्यता छे तो श्री
कुन्दकुन्दाचार्ये समयसारने (–शुद्धात्माने) बन्ने नयोना पक्षथी रहित केम कह्यो? पोताना आ भावने व्यक्त
करतां तेओ समयसार गा. १४२ मां कहे छे के :–
“कम्मं बद्धमबद्धं जीवे ×××”
“जीवमां कर्म बद्ध छे अथवा अबद्ध छे ए प्रकारे तो नयपक्ष जाण; पण जे पक्षातिक्रान्त (–पक्षने
ओळंगी गयेलो) कहेवाय छे ते समयसार (निर्विकल्प शुद्धात्मतत्त्व) छे.”
आ ज वातने स्पष्ट करतां तेओ बीजा शब्दोमां फरी कहे छे के:–
“दोण्ह वि णयाण भणियं ×××।। १४३।।”
“नयपक्षथी रहित जीव समयथी प्रतिबद्ध थयो थको (चित्स्वरूप आत्मानो अनुभव करतो थको) बन्ने
नयोना कथनने मात्र जाणे ज छे, परंतु नयपक्षने किंचित्मात्र पण (जरा पण) ग्रहण करतो नथी” १४३
६९. आचार्य श्री अमृतचंद्र पण तेनुं समर्थन करतां कळश नं. ६९ मां कहे छे के:–
‘य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् ।
विकल्पजालच्युत शान्तचितास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ।। ६९।।’
“ जे नयोना पक्षपातने छोडीने सदा पोताना स्वरूपमां गुप्त थईने निवास करे छे तेओ ज विकल्प
जाळथी रहित शान्तचित्त थया थका साक्षात् अमृत पीए छे. ६९.”
* तेना विषयने जाणवानुं न छोडो.