प्रथम जेठ : २४८७ : ९ :
“अहीं कोई जाणे के शुभ–अशुभ क्रियारूप आचरणरूप जे चारित्र छे ते जेम करवा योग्य नथी तेम
वर्जवा योग्य पण नथी. तेने उत्तर:– एवो के वर्जवा योग्य छे, केमके जे कांई व्यवहार चारित्र छे ते दुष्ट छे,
अनिष्ट छे, घातक छे तेथी विषय कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषेध्य छे.”
(व्यवहार विमोहित जीवो व्यवहार करतां–करतां निश्चय थाय एम कहे छे तेनो ज्ञानीओ निषेध
पप. श्री पूज्यपादस्वामी श्री ईष्टोपदेश गा. ४७–४८ मां पण कहे छे के :–
“जे योगी व्यवहारधर्मथी बहार जई आत्माना अनुष्ठानमां निष्ठ थाय छे तेने परमानंदनो लाभ
“ते आनंद घणा प्रकारना कर्मोने–जेम अग्नि इंधनने बाळी नाखे छे तेम–बराबर बाळी नाखे छे.
प६. ए प्रमाणे व्यवहारधर्म बंधनुं कारण होवाथी ते छोडवा योग्य छे–तेनी बहार जवा जेवुं छे–तेने
ओळंगी जई शुद्धता प्रगट करवा योग्य छे; एम जे नथी मानता, पण व्यवहारधर्म (व्यवहार साधन
होवाथी) ते करतां करतां निश्चयधर्म थशे एम जे माने छे ते व्यवहारथी विमोहित छे. व्यवहार साधननो
अर्थ एटलो ज छे के–जीव ज्यारे तेने ओळंगी जई शुद्धता प्रगट करे छे त्यारे तेने (भूत नैगमनये) निमित्त
कहेवामां आवे छे. छतां व्यवहार करतां करतां निश्चयधर्म थाय एम माननार व्यवहारने ज निश्चय माने छे.
सर्वविशुद्धज्ञानअधिकारमां केहेलुं व्यवहारविमोहित जीवोनु्रं स्वरूप
प७. श्री समयसार गा. ३२४ थी ३२७ नी टीकामां कह्युं छे के :–
“अज्ञानीओ ज व्यवहार विमूढ (व्यवहारमां ज विमूढ) होवाथी परद्रव्यने ‘आ मारुं छे.’ एम देखे
प८. आ गाथाओनुं मथाळुं बांधता पं. जयचंद्रजी लखे छे के :–
हवे, “जेओ व्यवहारनयना कथनने ग्रहीने ‘परद्रव्य मारुं छे.’ एम कहे छे, ए रीते व्यवहारने ज
निश्चय मानीने आत्माने परद्रव्यनो कर्ता माने छे, तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.” ईत्यादि अर्थनी गाथाओ द्रष्टांत
सहित कहे छे.
प९. आ गाथाओनी टीकामां श्री जयसेनाचार्य कहे छे के :–
‘प्रश्न:– ज्ञानी होवा छतां व्यवहारे परद्रव्यने आत्मीय (पोताना) कहेतां शा कारणे ते अज्ञानी थई
उत्तर:– व्यवहार ज, म्लेच्छोने म्लेच्छनी भाषामां कहेवानी माफक प्राथमिक जनोने संबोधवा अर्थे ते
६०. आ उपरथी एम समजवुं के प्राथमिकजनोने संबोधवा अर्थे–(ते निश्चयनुं प्रतिपादक होवाथी)
शास्त्रो व्यवहारनुं कथन करे छे. आम होवा छतां