Atmadharma magazine - Ank 213
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : ए.२१३
जेओ व्यवहारना कथनने ज निश्चय स्वरूप मानी ले छे तेओ व्यवहारमू्रढ व्यवहार विमोहित छे.
६१. आ गाथा ३२४–३२७ नी टीकामां आगळ जतां कह्युं छे के:– (पा. ४८८)
“×× जो ज्ञानी पण कोईपण प्रकारे व्यवहार विमूढ थईने परद्रव्योने ‘आ मारुं छे’ एम देखे तो ते
वखते ते पण निःसंशयपणे अर्थात् चोक्कस, परद्रव्योने पोतारूप करतो थको, मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे××”
६२. श्री जयसेनाचार्य पण कहे छे के:–
“ए प्रमाणे उपर कहेला द्रष्टांत प्रमाणे ज्ञानी ‘व्यवहारमूढ’ थईने जो परद्रव्यने आत्मीय जाणे तो ते
त्यारे मिथ्यात्व प्राप्त करतो थको मिथ्याद्रष्टि निःसंशय–निश्चित थाय छे तेमां संदेह कर्तव्य नथी.” पा. ४२९
६३. त्यारपछी श्री समयसार गा. ४१३ नी टीका, भावार्थ अने ते उपरना कळश २४२मां आ संबंधी
नीचे प्रमाणे कह्युं छे–
“जेओ खरेखर ‘हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक (–श्रावक) छुं, एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या
अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ (अनादिकाळथी चाल्या आवेला) व्यवहारमां मूढ (मोही) वर्तता थका,
प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (–निश्चयनय) पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थ सत्य भगवान समयसारने
देखता–अनुभवता नथी.”
६४. आ टीकामां नीचेना शब्दो घणा ज उपयोगी छे.
(१) ‘अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ’–आ शब्दो एम बतावे छे के व्यवहार मूढतातो जीवोने
अनादिथी चाली आवे छे. अर्थात् द्रव्यलिंगने एटले के शुभ भावने धर्म मानवो ए तो अनादिथी ज जीवोने
चाल्युं आवे छे. व्यवहारथी शुद्धता थाय ए मान्यता तो मिथ्या छे अने ज्यां सुधी ते मान्यता जीव छोडे
नहि त्यां सुधी तेनो शुभभाव प्रत्येनो ममकाररूप मिथ्या अहंकार शी रीते विलय थाय? कदी न थाय. (आ
भावनुं कथन श्री समयसार गा. ११ ना भावार्थमां आप्युं छे. जे उपर पारा ४४ मां आपेल छे.)
(२) तेओ व्यवहारना आश्रये लाभ थशे एम मानता होवाथी पौढ विवेकवाळा निश्चयनय पर
अनारूढ वर्ते छे–आरूढ थता नथी–चडता नथी तेथी तेओने लेशमात्र धर्म थतो नथी एटले के आत्मानो
अनुभव थतो नथी.
(अहीं ध्यानमां राखवुं के–निश्चयनयने आचार्यदेवे प्रौढ विवेकवाळो कह्यो छे, केमके श्री समयसारनी
गा. ११मां कह्या प्रमाणे तेना (निश्चयनयना) आश्रये परपदार्थ अने रागथी (व्यवहारथी) भेदज्ञान थई
निज त्रिकाळी शुद्धात्म तरफ पुरुषार्थनी गति वळे छे अने सम्यग्दर्शन थाय छे एटले के आत्मानो अनुभव
थाय छे. श्री समयसार गा. ४३ मां ‘निश्चयवादीने ज’ परमार्थवादी (सत्यार्थवादी) कह्या छे, बीजाने नहीं–
व्यवहारवादीओने नहीं. श्री समयसार गा. ३२४–३२७ नी टीकामां ज्ञानिओने ‘निश्चय प्रतिबद्ध’ अर्थात्
निश्चयना जाणनारा कह्या छे अने गा. ४१३ मां ज्ञानीओने प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (नय उपर आरूढ कह्या
छे. निश्चयवादी अने निश्चयाभासी वच्चे महान अंतर छे ए ख्यालमां राखवा योग्य छे.)
६प. आ गाथाना भावार्थमां पंडित जयचंद्रजी आ वातनी स्पष्टता चालु भाषामां करतां कहे छे के –
“अनादि काळनो परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ अर्थात् मोहित छे,
तेओ एम माने छे के ‘आ बाह्य महाव्रतादि भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे.’