प्रथम जेठ : २४८७ : ११ :
परंतु जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. आवा पुरुषो सत्यार्थ, परमात्मरूप,
शुद्धज्ञानमय समयसारने देखता नथी.”
(टीकामां जेने प्रौढ विवेकवाळो निश्चयनय’ कह्यो हतो तेने चालु भाषामां पंडितजीए ‘जेनाथी
भेदज्ञान थाय छे एवो निश्चयनय’ कह्यो छे.)
६६. आ कथनने वधारे स्पष्ट करवा माटे कळश २४२ छे; तेमां आचार्यदेवे–“व्यवहार विमूढ द्रष्टय:”
एवो शब्द वापर्यो छे. ते कळशनो गुजराती अनुवाद नीचे प्रमाणे छे:–
“व्यवहारमां ज जेमनी द्रष्टि (बुद्धि) मोहित छे एवा पुरुषो परमार्थने जाणता नथी. जेम जगतमां
तुषना (फोतरांना) ज्ञानमां ज जेमनी बुद्धि मोहित छे (–मोह पामी छे) एवा पुरुषो तुषने ज जाणे छे,
तंडुलने जाणता नथी. (अहीं व्यवहारने ‘तुष’ नी उपमा अने निश्चयने ‘तंडुल’ नी उपमा आपी छे.)
६७. श्री ‘दोहापाहुड’ नामना शास्त्रना ८प मा दोहामां आ फोतरां अने कणनुं द्रष्टांत आप्युं छे ते
दोहानो अर्थ नीचे प्रमाणे छे:–
“हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तुं कण ने छोडी मात्र तुष ज खांडे छे अर्थात् तुं अर्थ अने शब्दमां ज
संतुष्ट छे पण परमार्थ जाणतो नथी माटे मूर्ख छे.”
(अहीं व्यवहारने तुष अने परमार्थने–निश्चयने कण कह्यो छे. एटले ते उपरना कळशमां कहेल
भावने अनुसरे छे.)
६८. उपर कहेला कळश २४२नो अर्थ विशेष स्पष्ट करवा माटे श्री समयसार नाटकमां कवित ११९थी
१२१ आपेल छे ते बहु उपयोगी होवाथी तेने अहीं अर्थ सहित आपवामां आवे छे.
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६९. पंडित श्री बनारसीदासजीनां ते कवितो नीचे प्रमाणे छे :–
(१) व्यवहारी मूढ नर, पर्ययबुद्धि जीव
तिनके बाह्यक्रिया हीको है अवलंबन सदीव।। १२०।।
अर्थ :– जे व्यवहारी मूढ नर छे, ते पर्यायबुद्धि (अज्ञानी) जीव छे, तेने बाह्य क्रियानुं ज अवलंबन
सदैव (हंमेशा–सदा काळे) होय छे.
आ उपरथी सिद्ध थयुं के–व्यवहारी मूढ जीव परालंबनथी धर्म थाय एम माने छे. ते आत्माना
अवलंबने धर्म थाय एम मानता नथी केमके तेओ तो व्यवहार करतां करतां धर्म थशे एम माने छे–तेथी ते
सदाकाळ परालंबी होय छे.
(र) कुमति बाहीज द्रष्टि सो, बाहिज क्रिया करंत.
माने मोक्ष परंपरा, मनमें हरष धरन्त ।। १२१।।
अर्थ : कुमति बाह्यद्रष्टिथी बाह्यक्रिया करे छे; अने तेनाथी परंपरा मोक्ष थशे एम माने छे अने
मनमां हर्ष पामे छे. १२१
अहीं श्रद्धा–साची मान्यता कोने कहेवाय ते समजावतां कहे छे के–व्यवहारमूढ जीवो मोक्षमार्ग एक ज
छे, एम न मानतां तेमणे मानेली शुभक्रियाथी परंपरा मोक्ष थशे एम माने छे. ते श्रद्धा–मान्यता मिथ्या
होवाथी छोडवा योग्य छे.
(३) शुद्धात्म अनुभौकथा कहे समकिती कोय.
सो सुनि के तासो कहे यह शिवपंथ न होय ।। १२२।।
अर्थ :– जे कोई सम्यग्द्रष्टि जीव छे ते शुद्धात्म अनुभवनी कथा कहे–तेने सांभळी (व्यवहार मूढ
जीवो) ने शिवपंथ न होय एम कहे छे. १२२.
आ कवित् स्पष्ट छे.
७०. अज्ञानीओ व्यवहारने ज परमार्थ माने छे एम जे समयसार गा. ३२४ थी ३२७ ना मथाळामां
तथा टीकामां कह्युं छे तेनी सत्यता द्रढ करवा माटे कळश