: ८ : आत्मधर्म : ए.२१३
श्री समयसार कलश–टीका (पा. ७९) मां आ कलशनो अर्थ करतां जणावे छे के :–
आत्मा अर्थात् चेतनद्रव्य परभावस्य कहेतां ज्ञानावरणादि कर्मोने करे छे एवुं जाणपणुं ते
व्यवहारीनो मोह छे.
(अज्ञानीओ तो व्यवहारनयना कथनने ज निश्चय माने छे. ए व्यवहारीओनी मूढता–अज्ञानता छे.)
आ विषयने वधारे स्पष्ट करतां श्री समयसार गा. ९८ नी टीकामां श्री अमृतचंद्र आचार्य कहे छे के:–
“जेथी पोताना (ईच्छारूप) विकल्प अने (हस्तादिनी क्रियारूप) व्यापार वडे आ आत्म घटआदि
पर द्रव्यस्वरूप बाह्य कर्मने करतो (व्यवहारीओने) प्रतिभासे छे तेथी तेवी रीते (आत्मा) क्रोधादि
परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मने पण–बन्ने कर्मो परद्रव्यस्वरूप होईने तेमनामां तफावत नहि होवाथी–
करे छे, एवो व्यवहारी जीवोनो व्यामोह (भ्रांति, अज्ञान) छे.”
(आ रीते व्यवहारथी विमोहित जीवो, जीव अने अजीवनुं भेदज्ञान करी शकता नथी तो जीव अने
आस्रव वच्चेनुं भेदज्ञान तो क्यांथी करी शके? न ज करी शके, नवतत्त्वोमांथी पहेलां बे तत्त्वो संबंधी तेमने
मूढता वर्ते छे.)
पर. आ गाथानी टीकामां श्री जयसेनाचार्य नीचे प्रमाणे फरमावे छे:–
“परभावने आत्मा करे छे एम जे व्यवहारीजनो कहे छे ते व्यामोह छे एम उपदेशे छे.
“जेवी रीते अन्योन्य (परस्पर) व्यवहारे घट–पट–रथादि बर्हिद्रव्य ईच्छापूर्वक आत्मा करे छे तेवी रीते
अभ्यंतरमां करणो ईन्द्रियो तथा नोकर्मने तथा आ जगतमां विविध क्रोधादि द्रव्यकर्म ईच्छापूर्वक तेमनामां तफावत
नहि होईने करे छे–एम तेओ माने छे, तेथी (तेओनुं एम मानवुं) ते व्यवहारीनो व्यामोह–मूढता छे.”
(आत्मा व्यवहारे के निश्चये परद्रव्यनुं कांई पण करे एम जगतमां कदी बनतुं ज नथी. आत्मा
परद्रव्यनुं व्यवहारे करे ए तो, आत्माना रागना निमित्तपणानुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे–ते उपरथी
व्यवहारे तो आत्मा परद्रव्यनुं करी शके छे एम मानवुं ते व्यवहारीओनो व्यामोह छे एम अहीं समजाव्युं छे.)
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पुण्यभाव संबंधमां व्यवहारीनी विमोहितता
प३. श्री समयसार पुण्य–पाप एकत्व अधिकार कलश १०७ नी टीकामां–श्री कलश टीका पा. १०८ मां
“भावार्थ–जेटली शुभ–अशुभ क्रिया–आचरण अथवा बाह्यरूप वक्तव्य अथवा सूक्ष्म अंतरंगरूप
चिंतवन, अभिलाष, स्मरण ईत्यादि समस्त अशुद्धत्वरूप परिणमन छे, शुद्धपरिणमन नथी ते बंधनुं कारण
छे, मोक्षनुं कारण नथी.
“तेथी कामळा (धाबळा) पर चीतरेलो नाहर१ जेम कहेवा मात्र नाहर छे तेम व्यवहाररूप चारित्र
प४. त्यारपछी कलश १०८ नी टीकामां (श्री कलश टीका पा. १०९ मां जणाव्युं छे के :–
१. अहीं व्यवहारचारित्रने धाबळापर चीतरेला नाहरनी उपमा आपी छे. जेम ते चित्ररूप नाहर कोई ढोरने
फाडी–मारी नाखी शके नहि तेम व्यवहारचारित्र विकारने फाडी शके नहि–तेनो नाश करी शके नहि–एम समजवुं; केमके ते
पोते बंधनुं ज कारण छे. मोक्षनुं कारण नथी, विकार रूप छे.