प्र. जेठ : २४८७ : ७ :
४६. श्री जयसेनाचार्य ‘व्यवहारनय शा माटे अभूतार्थ छे’ तेनो खुलासो समयसार गा. ४६ नी
टीकामां नीचेना शब्दोमां करे छे:–
“यद्यप्पयं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यालं बत्वेन अभूतार्थ स्तयापि रागादि बहिर्द्रव्यालं बनरहित
विशुद्धज्ञानदर्शन–स्वभावस्यालंवन सहितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वात् दर्शवितुमुचितो भवति–”
अर्थ: जो के आ व्यवहारनयने बहिरद्रव्यनुं आलंबन होवाथी अभूतार्थ छे, तो पण रागादि,
ए रीते अहीं स्पष्ट फरमाव्युं छे के व्यवहारनयने परद्रव्यनुं आलंबन होवाथी अभूतार्थ छे. ए तो
निर्विवाद सिद्धांत छे के स्वद्रव्यालंबने ज धर्म थाय, परद्रव्यना आलंबने कदी धर्म न थाय, पण पुण्य–पापरूप
भावो थाय.
१प
४७. श्री समयसारनी गाथा प६ नी टीकामां आ संबंधे नीचे मुजब जणाव्युं छे :–
“अहीं, व्यवहारनय पर्यायाआश्रित होवाथी, सफेद रूनुं बनेलुं वस्त्र जे कसुंबा वडे रंगायेलुं छे एवा
वस्त्रना औपाधिक भाव (–लाल रंग) नी जेम पुद्गलना संयोगवशे अनादिकाळथी जेनो बंधपर्याय प्रसिद्ध छे
एवा जीवना औपाधिक भावोने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, (ते व्यवहारनय) बीजाना भावने बीजानो कहे छे;
अने निश्चयनय द्रव्यना आश्रये होवाथी, केवळ एक जीवना स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ततो
थको, बीजाना भावने जरापण बीजानो नथी कहेतो, निषेधे छे. ××”
४८. अहीं नीचे प्रमाणे बताव्युं :–
(१) व्यवहारनय जीवना औपाधिक भावोने अवलंबीने प्रवर्ते छे.
(२) ए रीते प्रवर्ततां, बीजाना भावने बीजानो कहे छे; (मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. २पपमां पण
तेमज कह्युं छे.)
(३) सत्यार्थ कहेतो नथी तेथी निश्चयनय तेने निषेधे छे.
(४) व्यवहारनय निषेध्य छे, निश्चयनय तेनो निषेधक छे.
(प) व्यवहारनय तो औपाधिक भावोने अवलंबीने प्रवर्ततो होवाथी, ते प्रकारे तेनुं ज्ञान करवुं
कर्ताकर्म संबंधमां व्यवहार विमोहित जीवनी ऊंधी मान्यता
आ संबंधमां श्री समयसारना कर्ता–कर्म अधिकारनां कळश ६२मां नीचे प्रमाणे कह्युं छे:–
आत्मा ज्ञानं स्वयंज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोतिकिम् ।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।। ६२।।
अर्थ : आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे; ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा परभावनो
कर्ता छे एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे. ६२.