: ६ : आत्मधर्म : ए.२१३
व्यवहारथी विमोहित जीवोनुं स्वरूप
४१. आ विषय–‘मोक्षमार्ग एक ज छे’ एम नक्की करवा माटे उप्योगी होई अहीं लेवामां आव्यो छे.
श्री समयसार गा. ८ नी टीकामां आ संबंधमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे :–
“व्यवहारनय पण म्लेच्छ भाषाना स्थाने होवाने लीधे परमार्थनो प्रतिपादक होवाथी. व्यवहार
स्थापन करवा योग्य छे; तेम ज ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुं–ए वचनथी ते (व्यवहारनय) अनुसरवा योग्य नथी.
जेओ व्यवहारने अनुसरवा योग्य माने छे तेमनी श्रद्धा खोटी होवाथी तेओ ‘व्यवहारथी विमोहित’
छे–एम अहीं समजाव्युं छे.
४र. त्यार पछी श्री समयसार गा. ११ ना मथाळामां प्रश्न करवामां आव्यो के–व्यवहारनय शा माटे
अनुसरवा योग्य नथी? तेना उत्तररूपे गा. ११मां कह्युं के –
“व्यवहारनय अभूतार्थदर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे; भूतार्थने आश्रितजीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे.” ११.
४३. आ गाथानो अर्थ स्पष्ट करतां श्री अमृतचंद्र आचार्य कहे छे के –
“व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी
भूत अर्थने प्रगट करे छे. ×××
आत्मा अने कर्मनो विवेक नहि करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळाओ तो, तेने (आत्माने)
जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) छे एवो अनुभवे छे. ×××
(अहीं) व्यवहारथी विमोहित जीवोने शुद्धात्मानो अनुभव कदी थतो नथी, अर्थात् तेमनी श्रद्धा
मिथ्या छे. एम समजवुं. आ जीवो एक के बीजी रीते व्यवहार जे बधोय अभूतार्थ छे तेना आश्रये आंशिक
लाभ थाय एम माने छे. तेथी तेमने विमोहित कह्या छे.
४४. तेज गाथाना भावार्थमां पंडित जयचंद्रजी कहे छे के :–
‘×× प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे. अने एनो उपदेश पण बहुधा
सर्वे प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब१ जाणी बहु कर्यो
छे; पण एनुं फळ संसार ज छे. ××”
ए रीते अहीं त्रण प्रकारो कह्या–
१. जीवोने व्यवहारनो पक्ष अनादिथी ज छे,
२. एनो उपदेश पण प्राणीओ परस्पर बहु करे छे.
३. जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश बहु कर्यो छे.
पण आ त्रणेनुं फळ एक ज छे एटले के संसार ज छे, बीजुं कांई नथी. व्यवहारनो विषय
व्यवहारनये हेय बुद्धिए जाणवा योग्य छे, परंतु अंशे पण आश्रय करवा योग्य नथी, एम अहीं स्पष्ट
करवामां आव्युं छे.
४प. ज्ञानी पुरुषोने तेमनी भूमिका अनुसार नीचेनां गुणस्थानोमां (सविकल्प दशामां)–पोतानी
नबळाईना कारणे व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी, पण तेओ तेनाथी विमोहित नहि होवाथी व्यवहार
जाणेलो ते काळे प्रयोजनवान छे एम
१. नयो बे छे–तेमां एक व्यवहारनय छे–तेथी ते छे एम स्थापन करवुं ते योग्य छे. तेथी बंने नयोनुं ज्ञान जरूरनुं छे
पण व्यवहारना आश्रये धर्म थतो नथी तेथी ते आश्रय करवा योग्य नथी एवुं तेना हेयपणानुं ज्ञान पण एकी
साथे होवुं जोईए
२. हस्तावलंब=निमित्त; प्रतिपादक.