प्रथम जेठ : २४८७ : १३ :
७४. श्री जयसेन आचार्ये गा. १९० नी टीकामां कह्युं छे के–व्यवहारनयवडे मोह (ममता) दूर करी
शकाय नहि छतां तेनाथी ममता दूर करी शकाय एम माने एटले के व्यवहारनयमां अविरोधपणे मध्यस्थ न
रहे तेवा जीवोने ‘व्यवहार मोहित हृदय’ धरावनारा कह्या छे.
७प. त्यारपछी गा. १९१ नी टीकामां श्री जयसेन आचार्य जणावे छे के :–
“×× उपादानकारणसदशंकार्य–एवुं वचन छे तेथी नक्की थाय छे के शुद्धनयथी शुद्धात्म लाभ थाय छे. ××”
पं. श्री बनारसीदासजी कृत श्री परमार्थ वचनिका
७६. आ वचनिकामां मूढ अने ज्ञानी जीवोनुं विशेषपणुं (तफावत) शुं होय छे, ते समजाव्युं छे. त्यां
हवे मूढ अने ज्ञानी जीवनुं विशेषपणुं अन्यपण सांभळो’–एवा मथाळा नीचे जे जणाव्युं छे ते उपयोगी
होवाथी नीचे आपवामां आव्युं छे. तेओ कहे छे के:–
(१) “ज्ञातातो मोक्षमार्ग साधी जाणे पण मूढ मोक्षमार्ग साधी जाणे नहि. शा माटे? ते सांभळो :–
मूढजीव आगम३ पद्धतिने व्यवहार कहे छे अने अध्यात्म पद्धतिने निश्चय कहे छे, तेथी ते
आगमअंगने एकांतपणे साधी मोक्षमार्ग दर्शावे छे;” (‘आगमअंगने एकांतपणे’ एवुं जे पद छे तेनो अर्थ
एवो छे के चारित्रनी आंशिक पण शुद्धि वगरना–हठवाळा महाव्रत–अणुव्रत, पडिमा–भक्ति–पूजा–दानादिरूप
अज्ञानीना शुभभाव तेने एकांतपणे साधी मोक्षमार्ग दर्शावे छे एम कह्युं छे. व्यवहार करतां करतां निश्चय
थाय एम कहो के आगमअंगने एकांतपणे साधी मोक्षमार्ग दर्शावे छे–एम कहो ए बंन्ने एक ज भावसूचक
छे.)
(२) “अध्यात्म अंगने व्यवहारथी पण जाणे नहीं; ए मूढद्रष्टि जीवनो स्वभाव छे. तेने ए प्रमाणे
(३) ते बाह्यक्रिया करतो थको मूढ जीव पोताने मोक्षमार्गनो अधिकारी माने छे, पण अंतर्गर्भित
(४) कारण–अंतर्दष्टिना अभावथी अंतरक्रिया द्रष्टिगोचर आवे नहि तेथी मिथ्याद्रष्टि जीव (गमे
(प) “सम्यग्द्रष्टिने स्व–पर स्वरूपमां संशय, विमोह अने विभ्रम नथी, यथार्थ द्रष्टि छे, तेथी
सम्यग्द्रष्टि जीव अंतर्दष्टि वडे मोक्षपद्धति साधी जाणे छे.
× × ×
(६) ते बाह्यभावने बाह्य निमित्तरूप४ माने छे; ते निमित्त तो नाना प्रकारनां छे, एकरूप नथी;
३. तेओ कहे छे के कर्मपद्धति पौद्गलिक द्रव्यरूप अथवा भावरूप छे. द्रव्यरूप तो पुद्गलना परिणाम छे. भावरूप
पुद्गलाकार आत्मानी अशुद्ध परिणतिरूपे परिणाम छे. एटले के तेओ महाव्रत–अणुव्रत आदि रागभाव अने
द्रव्यकर्म ने अज्ञानी व्यवहार कहे छे. शुद्धपरिणति जे व्यवहार छे तेने अज्ञानी स्वीकारता नथी.
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. ३प३, ३प४)
४. धर्मी जीवने ज साची रीते व्यवहार मोक्षमार्ग होय छे ते बाह्यभाव छे तेथी ते बाह्य निमित्तमात्र छे. तेने श्री
पंचास्तिकाय गा. १प९ नी टीकामां भिन्न साध्य–साधन भाववाळो व्यवहारनय कहेवामां आवे छे. भिन्न साधन
कहो के बाह्य निमित्त कहो–बन्ने एक ज छे.