आ निश्चय अने व्यवहारना आल बनवडे व्याख्यान करवानी विशेषता छे. एथी वस्तुस्वरूप बे प्रकारनुं
थई जाय छे एम नथी.
नक्षत्रलोकने एक करवानी छे. ए पण अमे जाण्युं छे पण एनाथी प्रत्येक कार्य पोतपोताना उपादान
अनुसार स्वकाळने प्राप्त थवानी ज थाय छे ए सिद्धांतनो व्याघात कयां थाय छे. अने आ सिद्धांतने स्वीकारी
लेवाथी उपदेशादिनी व्यर्थता पण क्यां प्रमाणित थाय छे? सर्व कार्य–कारण पद्धतिथी पोतपोताना काळमां
थतां रहे छे अने थता रहेशे.
परिपाकनो स्वकाळ आववाथी भगवाननो उपदेश स्वीकारीने जेओए पुरुषार्थ कर्यो ते ज के अन्य सर्व
प्राणी?
विचार करो. जो निमित्तोमां पदार्थोनी कार्य निष्पादनक्षम (कार्यने सारी रीते पूर्ण करवा सामर्थ्यरूप)
योग्यतानो स्वकाळ आव्या विना एकला ज अनियत समयमां कार्यने उत्पन्न करवानुं सामर्थ्य होय तो
भव्य–अभव्यनो विभाग समाप्त थई, संसारनो अंत कयारनो थई गयो होत.
समये ऊगवा–आथमवा आदि उदाहरणोने उपस्थित करीने के शास्त्रोमां वर्णवेला केटलाक भविष्यना कथन
सम्बन्धी घटनाओने उपस्थित करीने एकान्त नियतिनुं समर्थन करवा मागे छे तेओनी ते विचारधारा
कार्यकारण परम्परा अनुसार तर्कमार्गनुं अनुसरण नथी करती, तेथी ते उदाहरण पोतानामां बराबर होवा
छतां पण आत्मपुरुषार्थने जागृत करवामां समर्थ थई शकता नथी, पंडित प्रवर बनारसीदासजीना जीवनमां
एवो एक प्रसंग उपस्थित थयो हतो. तेओ तेनुं चित्रण (चितार) करता थका स्वयं पोताना कथानकमां कहे
छे के– “करणीका रस जान्यो नहि नहि जान्यो आतम स्वाद; भई बनारसिकी दशा जथा ऊंट कौ पाद.” पण
एटला मात्रथी बीजा विचारवामां मनुष्य जो पोताना पक्षनुं समर्थन करवा मागे तो तेनुं एम करवुं कोई
पण हालतमां उचित कही शकातुं नथी, केमके तेमनी विचारधारा कार्योत्पत्ति समये निमित्तनुं शुं स्थान छे ते
निर्णय करवानी न होवाथी उपादानने उपादानकारण न रहेवा देवानी छे. मालूम नथी के तेओ उपादान अने
निमित्तनुं कयुं लक्षण करी आ विचारधाराने प्रस्तुत (–प्राप्त; निष्पन्न) करी रह्या छे. तेओ पोताना
समर्थनमां कर्मसाहित्य अने दर्शन न्याय साहित्यना अनेक ग्रन्थोनां नाम लेवानुं पण चूकता नथी, परंतु
तेओ एकवार आ ग्रंथोना आधारे ए तो नक्की करे के एमां उपादान कारण अने निमित्त कारणनां ए
लक्षण करवामां आव्यां छे. पछी ए लक्षणोनी सर्वत्र व्याप्ति बेसाडतां तत्त्वनो निर्णय करे. अमने विश्वास छे
के तेओ जो आ प्रक्रिया (शैली) नो स्वीकार करी ले तो तत्त्व निर्णय थवामां विलंब थाय नहीं.