Atmadharma magazine - Ank 213
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : ए.२१३
कथन करवामां आवे छे त्यारे ते ज काय अकालमरण के अकालपाक जेवा शब्दो द्वारा पण कहेवामां आवे छे.
आ निश्चय अने व्यवहारना आल बनवडे व्याख्यान करवानी विशेषता छे. एथी वस्तुस्वरूप बे प्रकारनुं
थई जाय छे एम नथी.
प६. ए तो अमे मानीए छीए के वर्तमानमां विज्ञानना नवा नवा प्रयोग द्रष्टिगोचर थई रह्या छे.
संहारक अस्त्रोनी तीव्रता पण अमे स्वीकारीए छीए. आजना मानवनी आकांक्षा अने प्रयत्न धरती अने
नक्षत्रलोकने एक करवानी छे. ए पण अमे जाण्युं छे पण एनाथी प्रत्येक कार्य पोतपोताना उपादान
अनुसार स्वकाळने प्राप्त थवानी ज थाय छे ए सिद्धांतनो व्याघात कयां थाय छे. अने आ सिद्धांतने स्वीकारी
लेवाथी उपदेशादिनी व्यर्थता पण क्यां प्रमाणित थाय छे? सर्व कार्य–कारण पद्धतिथी पोतपोताना काळमां
थतां रहे छे अने थता रहेशे.
लोकमां तत्त्वमार्गना उपदेष्टा अने मोक्षमार्गना आदिकर्ता मोटा मोटा तीर्थंकर थई गया अने आगळ
पण थशे परंतु एमना उपदेशथी केटला प्राणी लाभअन्वित (–युक्त–सहित) थया? आसन्नभव्यताना
परिपाकनो स्वकाळ आववाथी भगवाननो उपदेश स्वीकारीने जेओए पुरुषार्थ कर्यो ते ज के अन्य सर्व
प्राणी?
प७. आ रीते वर्तमानमां के भविष्यमां पण जे आसन्नभव्यता (निकटनी भव्यता) नो परिपाक
काळ आववाथी भगवाननो उपदेश स्वीकारी पुरुषार्थ करशे ते ज लाभयुक्त थशे के अन्य सर्व प्राणी?
विचार करो. जो निमित्तोमां पदार्थोनी कार्य निष्पादनक्षम (कार्यने सारी रीते पूर्ण करवा सामर्थ्यरूप)
योग्यतानो स्वकाळ आव्या विना एकला ज अनियत समयमां कार्यने उत्पन्न करवानुं सामर्थ्य होय तो
भव्य–अभव्यनो विभाग समाप्त थई, संसारनो अंत कयारनो थई गयो होत.
प८. अमे एम तो मानीए छीए के जे लोक भगवाननी वाणी अनुसार तर्कनो आश्रय लईने के
लीधा विना स्वयं पोतानी विवेक बुद्धिथी तत्त्वनो निर्णय तो करता नथी अने मात्र सूर्य आदिना नियत
समये ऊगवा–आथमवा आदि उदाहरणोने उपस्थित करीने के शास्त्रोमां वर्णवेला केटलाक भविष्यना कथन
सम्बन्धी घटनाओने उपस्थित करीने एकान्त नियतिनुं समर्थन करवा मागे छे तेओनी ते विचारधारा
कार्यकारण परम्परा अनुसार तर्कमार्गनुं अनुसरण नथी करती, तेथी ते उदाहरण पोतानामां बराबर होवा
छतां पण आत्मपुरुषार्थने जागृत करवामां समर्थ थई शकता नथी, पंडित प्रवर बनारसीदासजीना जीवनमां
एवो एक प्रसंग उपस्थित थयो हतो. तेओ तेनुं चित्रण (चितार) करता थका स्वयं पोताना कथानकमां कहे
छे के– “करणीका रस जान्यो नहि नहि जान्यो आतम स्वाद; भई बनारसिकी दशा जथा ऊंट कौ पाद.” पण
एटला मात्रथी बीजा विचारवामां मनुष्य जो पोताना पक्षनुं समर्थन करवा मागे तो तेनुं एम करवुं कोई
पण हालतमां उचित कही शकातुं नथी, केमके तेमनी विचारधारा कार्योत्पत्ति समये निमित्तनुं शुं स्थान छे ते
निर्णय करवानी न होवाथी उपादानने उपादानकारण न रहेवा देवानी छे. मालूम नथी के तेओ उपादान अने
निमित्तनुं कयुं लक्षण करी आ विचारधाराने प्रस्तुत (–प्राप्त; निष्पन्न) करी रह्या छे. तेओ पोताना
समर्थनमां कर्मसाहित्य अने दर्शन न्याय साहित्यना अनेक ग्रन्थोनां नाम लेवानुं पण चूकता नथी, परंतु
तेओ एकवार आ ग्रंथोना आधारे ए तो नक्की करे के एमां उपादान कारण अने निमित्त कारणनां ए
लक्षण करवामां आव्यां छे. पछी ए लक्षणोनी सर्वत्र व्याप्ति बेसाडतां तत्त्वनो निर्णय करे. अमने विश्वास छे
के तेओ जो आ प्रक्रिया (शैली) नो स्वीकार करी ले तो तत्त्व निर्णय थवामां विलंब थाय नहीं.
प९. शुद्ध द्रव्योमां तो सर्व पर्यायो क्रमबद्ध ज होय