Atmadharma magazine - Ank 213
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : ए.२१३
अज्ञानी जीव अनादि काळथी पोताने परनो कर्ता मानतो आव्यो छे. आ कर्तापणानो भाव केम दूर थाय
एम ते गाथामां बताववानुं प्रयोजन छे. ज्यारे आ जीवने एम निश्चय थाय छे के प्रत्येक पदार्थ पोतपोताना
क्रमनियमितपणाथी परिणमे छे माटे परनुं तो कांई पण करवानो मारामां अधिकार नथी ज. मारी पर्यायमां
पण हुं कांई फेरफार करी शकुं छुं ए विकल्प पण शमन करवा योग्य छे. त्यारे आ जीव निज आत्माना
स्वभाव सन्मुख थईने ज्ञाता द्रष्टारूपे परिणमन करतो थको पोताने परनो अकर्त्ता माने छे अने त्यारे ज
तेणे ‘क्रमनियमित’ ना सिद्धांतनो परमार्थरूपे स्वीकार कर्यो एम कही शकाय छे.
६४. ‘क्रमनियमित’ नो सिद्धांत स्वयं पोतानामां मौलिक (मूळभूत) होवाथी आत्माना
अकर्त्तापणाने सिद्ध करे छे. अहीं अकर्त्तानो फलितार्थ ज ज्ञाताद्रष्टा छे. आत्मा परनो अकर्ता थई ज्ञाताद्रष्टा
त्यारे ज थई शके छे के ज्यारे ते अंतरथी ‘क्रमनियमित’ ना सिद्धांतनो स्वीकार करी ले. माटे मोक्षमार्गमां
आ सिद्धांतनुं बहु ज मोटुं स्थान छे एम प्रकृतमां (–असली वास्तविक; यथार्थरूपमां अहीं) जाणवुं जोईए.
६प. आ विषय ते स्पष्ट करता थका श्री अमृतचंद्र आचार्य गा. ३०८ थी ३११ नी टीका करता थका
कहे छे के–
जीवो दि तावत् क्रमनियमितात्म×××”
‘प्रथम तो जीव क्रमनियमित पोताना परिणामो (पर्यायो) थी ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव
नथी; एवी ज रीते अजीव पण क्रमनियमित पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी;
कारण के जेम सुवर्णने कंकण आदि परिणामो साथे तादात्म्य छे तेम सर्व द्रव्योने पोतपोताना परिणामो साथे
तादात्म्य छे. आम जीव पोताना परिणामोथी ऊपजतो होवा छतां एने अजीवनी साथे कार्य–कारणभाव
सिद्ध थतो नथी, कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्यो साथे उत्पाद्य–उत्पादकभावनो अभाव छे; अने एक द्रव्यने
बीजा द्रव्य साथे कार्य–कारणभाव सिद्ध न थवाथी अजीव जीवनुं कर्म छे एम सिद्ध थतुं नथी अने अजीवने
जीवनुं कर्मत्व सिद्ध न थवाथी कर्ता–कर्म परनिरपेक्ष सिद्ध थाय छे अने कर्ता–कर्म पर निरपेक्ष सिद्ध थवाथी
जीव अजीवनो कर्ता सिद्ध थतो नथी, माटे जीव अकर्ता छे ए व्यवस्था बनी जाय छे.
आ रीते जीवनमां ‘क्रमनियमित पर्याय’ ना सिद्धांतनो स्वीकार करवानुं शुं महत्व छे अने तेनी
आत्मभावनारूप आराधना मंत्र

श्री सद्गुरुए कह्यो छे एवा निर्गं्रथ मार्गनो सदाय आश्रय रहो, हुं
देहादिस्वरूप नथी, अने देह स्त्री, पुत्रादि कोई पण मारां नथी, शुद्ध
चैतन्यस्वरूप अविनाशी एवो हुं आत्मा छउं.–एम आत्मभावना करतां
रागद्वेषनो क्षय थाय.
श्रीमद् राजचंद्र : वर्ष २९ मुं