Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४८७ : :
केम देखाय छे? तेना उत्तरमां पूज्यपादस्वामी कहे छे के–
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारवेच्चिरम् ।
कुर्यादर्य वशार्तकं चिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ।। ५०।।
धर्मात्मा ज्ञानी आत्मज्ञान सिवाय बीजा कोई कार्यने पोतानी बुद्धिमां चिरकाळ सुधी धारण करता
नथी; आत्मस्वभावनी भावना छोडीने कोईपण कार्यमां तेओ जोडाता नथी. आत्मानी भावना एक क्षण पण
छूटती नथी. अस्थिरताने लीधे प्रयोजनवश शरीर–वाणीनी कंईक चेष्टामां जोडाय छे पण तेमां ते अतत्पर छे;
तेने तेनी भावना नथी, तेमां तेओ ज्ञान–आनंद मानता नथी, माटे तेनाथी ते अनासक्त ज छे.
धर्मीने आत्माना ज्ञान–आनंदनो विश्वास छे, ने तेमां ज तेनी रति छे, शरीरादि बाह्य विषयोमां
आत्मानुं ज्ञान के आनंद नथी तेथी धर्मी तेनो विश्वास के रति करता नथी. ज्ञान–आनंद माटे कोनो विश्वास
करवो तेनी आ वात छे.
समकिती अंतरात्माने पोताना ज्ञान–स्वरूपनी प्रतीति थई गई छे, ते उपरांत निर्विकल्प अनुभवमां
आनंदनो स्वाद पण चाख्यो छे, अनंतकाळथी बाह्यविषयोमां जे स्वादनुं वेदन कदी पण नहोतुं थयुं एवा
अपूर्व स्वादनुं वेदन अनुभवमां थयुं, तेथी हवे धर्मी बाह्य विषयोथी छूटीने चैतन्यस्वरूपमां ज स्थिर रहेवा
मागे छे, वारंवार तेनो ज प्रयत्न करे छे, अस्थिरताने लंबाववा मागता नथी; बाह्य विषयो तेने सुहावता
नथी. अने ज्यां मुनिदशा थाय त्यां तो निर्विकल्प अनुभवमां वारंवार ठरे छे, मुनिनी परिणति लांबोकाळ
बहारमां रहेती नथी...ते तो स्वरूपमां ज तत्पर छे, आहार–उपदेश आदिनी क्रियाओमां अतत्पर छे...ते
संबंधी विकल्प आवे तेने लंबावता नथी, पण ते विकल्प तोडीने निर्विकल्पस्वरूपने वारंवार अनुभवे छे.
चोथा गुणस्थानवाळो समकिती अंतरात्मा पण रागादिमां ने विषयोमां अतत्पर छे, केमके तेमां सुख
मान्युं नथी, राजपाटमां होय, स्त्रीओ होय, खाता–पीता होय. छतां अंतरना चैतन्यसुखनी प्रीति आडे ते कोई
पण बाह्यविषयोमां के रागमां तत्पर थता नथी...क्यारे आ राग तोडुं ने क्यारे मारा आनंदमां ठरुं, ए ज एक
भावना छे. जो के हजी अस्थिरता होवाथी राग थाय छे ने मन–वाणी देहादिनी क्रियाओ उपर लक्ष जाय छे.–
पण तेमां क्यांय एवी एकाग्रता नथी थती के पोताना ज्ञान–आनंदने भूली जाय, ने बहारमां आनंद माने.
अज्ञानीने एम ज लागे छे के ज्ञानी राजपाटमां ऊभा छे–खाय छे–पीए छे–बोले छे–माटे तेमां तत्पर छे, पण
ज्ञानीना अंतरंग परिणाम विषयोथी ने रागथी केवा पार छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी...चैतन्यसुखनो जे
स्वाद ज्ञानीना वेदनमां आव्यो छे ते स्वादनी अज्ञानी विषयलुब्ध प्राणीने बिचाराने गंध पण नथी...एटले
पोतानी द्रष्टिए ज्ञानीने जोवा जाय छे, पण ज्ञानीनी वास्तविक दशाने ते ओळखतो नथी.
मुनि ध्यानमां आत्माना आनंदमां लीन होय...ने कोई सिंह आवीने शरीरने फाडी खाता होय...त्यां
बाह्यद्रष्टि मूढ प्राणीने एम थाय के अरर! आ मुनि केटला बधा दुःखी!!’–पण मुनिने तो अंदरमां
सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय वधारे आनंदरसनी धारा उल्लसी छे...सिद्ध भगवान जेवा परम आत्मसुखमां ते
लीन छे...अहीं तो हजी शरीरने सिंह खातो होय त्यां तो अतीन्द्रिय आनंदमां लीनता सहित,
एकावतारीपणे देह छोडीने मुनि तो सिद्धनी पाडोशमां सर्वार्थसिद्धिमां उपज्या होय! सिद्धशिलाथी
सर्वार्थसिद्धि फक्त बार जोजन दूर छे.
संयोगमां के रागमां सुख मानीने तेमां पोताना आत्माने धर्मी नथी झुलावता, पण धर्मी तो आत्मानो
विश्वास करीने तेना आनंदमां आत्माने झुलावे छे. स्वरूपना आनंदमांथी बहार नीकळवुं ते प्रमाद ने दुःख छे.
व्यवहारमां तो एम कहेवाय के तीर्थयात्रा न करे ते आळसु छे. शांतिनाथ भगवानना माताजी अचिरा–