छूटती नथी. अस्थिरताने लीधे प्रयोजनवश शरीर–वाणीनी कंईक चेष्टामां जोडाय छे पण तेमां ते अतत्पर छे;
तेने तेनी भावना नथी, तेमां तेओ ज्ञान–आनंद मानता नथी, माटे तेनाथी ते अनासक्त ज छे.
करवो तेनी आ वात छे.
अपूर्व स्वादनुं वेदन अनुभवमां थयुं, तेथी हवे धर्मी बाह्य विषयोथी छूटीने चैतन्यस्वरूपमां ज स्थिर रहेवा
मागे छे, वारंवार तेनो ज प्रयत्न करे छे, अस्थिरताने लंबाववा मागता नथी; बाह्य विषयो तेने सुहावता
नथी. अने ज्यां मुनिदशा थाय त्यां तो निर्विकल्प अनुभवमां वारंवार ठरे छे, मुनिनी परिणति लांबोकाळ
बहारमां रहेती नथी...ते तो स्वरूपमां ज तत्पर छे, आहार–उपदेश आदिनी क्रियाओमां अतत्पर छे...ते
संबंधी विकल्प आवे तेने लंबावता नथी, पण ते विकल्प तोडीने निर्विकल्पस्वरूपने वारंवार अनुभवे छे.
पण बाह्यविषयोमां के रागमां तत्पर थता नथी...क्यारे आ राग तोडुं ने क्यारे मारा आनंदमां ठरुं, ए ज एक
भावना छे. जो के हजी अस्थिरता होवाथी राग थाय छे ने मन–वाणी देहादिनी क्रियाओ उपर लक्ष जाय छे.–
पण तेमां क्यांय एवी एकाग्रता नथी थती के पोताना ज्ञान–आनंदने भूली जाय, ने बहारमां आनंद माने.
अज्ञानीने एम ज लागे छे के ज्ञानी राजपाटमां ऊभा छे–खाय छे–पीए छे–बोले छे–माटे तेमां तत्पर छे, पण
ज्ञानीना अंतरंग परिणाम विषयोथी ने रागथी केवा पार छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी...चैतन्यसुखनो जे
स्वाद ज्ञानीना वेदनमां आव्यो छे ते स्वादनी अज्ञानी विषयलुब्ध प्राणीने बिचाराने गंध पण नथी...एटले
पोतानी द्रष्टिए ज्ञानीने जोवा जाय छे, पण ज्ञानीनी वास्तविक दशाने ते ओळखतो नथी.
सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय वधारे आनंदरसनी धारा उल्लसी छे...सिद्ध भगवान जेवा परम आत्मसुखमां ते
लीन छे...अहीं तो हजी शरीरने सिंह खातो होय त्यां तो अतीन्द्रिय आनंदमां लीनता सहित,
एकावतारीपणे देह छोडीने मुनि तो सिद्धनी पाडोशमां सर्वार्थसिद्धिमां उपज्या होय! सिद्धशिलाथी
सर्वार्थसिद्धि फक्त बार जोजन दूर छे.
व्यवहारमां तो एम कहेवाय के तीर्थयात्रा न करे ते आळसु छे. शांतिनाथ भगवानना माताजी अचिरा–