: ६ : आत्मधर्म : २१३
देवीने गर्भकल्याणक वखते देवीओ विनोदथी प्रश्न पूछे छे के हे माता! खरो आळसु कोण? त्यारे माताजी कहे
छे के जे तीर्थयात्रा न करे ने विषयोमां ज वर्ते ते;–ए रीते त्यां व्यवहारमां एम कहेवाय; पण परमार्थे तो
चिदानंदस्वरूपना अनुभवमांथी बहार नीकळवुं ते प्रमाद छे–एटले के आळस छे. चैतन्यना आनंदना
अनुभवमां लीन संतो तेमांथी बहार नीकळवाना आळसु छे...केमके आत्माना अनुभव सिवाय बीजे क्यांय
तेमने सुख भासतुं नथी.
आ जड कायाने के तेनी क्रियाने धर्मी पोताना चित्तमां धारण करतो नथी; ते तो ज्ञान–आनंदमय
पोतानी चैतन्यकायाने ज धारण करे छे. आ देह मन–वाणी हुं नथी, हुं तेमनो कर्ता नथी, तेमनो करावनार
नथी के तेमनो अनुमोदनार नथी, तेमनाथी सर्वथा भिन्न ज्ञान–आनंद स्वरूप ज हुं छुं.
“हुं देह नहीं, वाणी न, मन नहीं, तेमनुं कारण नहि,
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहि.” प०.
आत्मधर्मी पोताना आत्मानी ज भावनामां तत्पर छे, अनासक्त अंतरात्मा पोतानी बुद्धिमां
आत्मज्ञानने धारे छे ने शरीरादिकने नथी धारतो–ए कई रीते? ते कहे छे.
बत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः ।
अन्तः पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ।। ५१।।
धर्मात्मा शरीरादिकथी भिन्न पोताना आत्मानी एवी भावना भावे छे के–ईन्द्रियोद्वारा जे देखाय छे ते
हुं नथी, मारुं स्वरूप तो परम उत्तम ज्ञानज्योति छे ने आनंद सहित छे–परम प्रसन्नतारूप जे परमार्थ सुख
तेनाथी सहित छे; हुं मारा आवा स्वरूपने अंतरमां देखुं छुं; ईन्द्रियोने बाह्य विषयोथी हठावीने
अतीन्द्रियज्ञान वडे हुं मारा आत्माने देखुं छुं–अनुभवुं छुं, ने ते सिवाय समस्त बाह्यविषयो प्रत्ये हुं
अनासक्त छुं.
ईन्द्रियोद्वारा बहारमां जे देखाय छे ते कांई आत्मानुं स्वरूप नथी. ईन्द्रियोद्वारा शरीरादि देखाय छे ते
तो जड छे, ते कांई आत्मा नथी; आत्मा कांई ईन्द्रियोथी न देखाय; आत्मा तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे, ने
अतीन्द्रियज्ञानथी ज ते देखाय छे.–धर्मात्मा पोताना ज्ञानने विषयोथी पाछुं वाळीने अंतरमां पोताना
स्वरूपमां वाळे छे; माटे ते बाह्य विषयोमां अनासक्त छे.
हजी तो जे पर द्रव्यने पोतानुं माने, के परथी पोताने सुख–दुःख माने तेने खरेखर अनासक्तिभाव
होय ज नहि, तेने तो पर साथे एकत्वबुद्धिने लीधे अनंत आसक्ति छे. धर्मी तो पोताना आत्माने समस्त
पर द्रव्योथी जुदो जाणीने आत्मा तरफ वळी गया छे, अने आत्मा सिवाय बीजे क््यांय स्वप्ने पण आनंद
भासतो नथी, तेथी तेमने ज समस्त बाह्य विषयो प्रत्ये खरी अनासक्ति होय छे.
हुं तो आनंदसहित ज्ञानज्योति छुं, अतीन्द्रियज्ञान ने आनंद मारुं स्वरूप छे...आनंदधाम आत्मा ए
ज मारा विश्वासनुं ने विश्रामनुं स्थान छे...आवा मारा तत्त्वने हुं अंतरमां आनंद सहित देखुं छुं. आनंदथी
परमप्रसन्न एवो मारो आत्मा ज मारा विसामानुं धाम छे–आम समकिती पोताना आत्मानी भावना करता
थका तेनी ज आराधना करे छे. तेने पोताना आत्मस्वरूपनुं चिंतन ज सुखकर लागे छे, ने ईन्द्रिय विषयो
तो दुःखकर लागे छे; माटे ते धर्मात्मा पोतानी बुद्धिमां आत्माने ज धारण करे छे. ।। प१।।
(२४८२ असाड सुद नोम: समाधिशतक गा. प२)
आत्मा पोते ज्ञान–आनंदमय छे एम धर्मी जाणे छे ने तेथी तेमां ज ते तत्पर छे एम कह्युं. त्यां हवे
प्रश्न पूछे छे के हे नाथ! जो आत्मानुं स्वरूप ज्ञान–आनंदमय छे, तो विषयो दुःखरूप छे, तो ते ईन्द्रिय