Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४८७ : :
विषयोथी पाछा हठीने आत्मानो अनुभव करवामां कष्ट जेवुं केम लागे छे? तेनुं समाधान करतां कहे छे के –
सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दुःखमथात्मनि
बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मनः ।। ५२।।
आत्मामां ज आनंद छे–ते ज उपादेय छे–तेमां ज एकाग्र थवा जेवुं छे–एवी रुचि अने भावना तो छे
ने तेमां एकाग्र थवानो जे हजी प्रयत्न करे छे, तेने शरूआतमां कष्ट लागे छे, केमके अनादिथी बाह्य
विषयोमां ज अभ्यास छे, तेथी ते बाह्य विषयोथी पाछा खसीने आत्म भावनामां आवतां कष्ट लागे छे.
बाह्य विषयो सहेला थई गया छे ने अंतरनो चैतन्य विषय कठण लागे छे, केमके कदी तेनो अनुभव कर्यो
नथी. अंतरमां एकाग्रतानो प्रयत्न करनार पूछे छे के प्रभो! आमां तो कष्ट लागे छे! एम पूछवामां कष्ट
कहीने ते छोडी देवा नथी मागतो पण उग्र प्रयत्नवडे आत्मानो अनुभव करवा मागे छे. आचार्यदेव कहे छे
के अरे भाई! शरूआतमां तने कष्ट जेवुं लागशे, पण अंर्तप्रयत्नथी आत्मानो अनुभव थतां एवो अपूर्व
आनंद थशे के तेना सिवाय बहारना बधा विषयो कष्टरूप दुःखरूप लागशे.
अनुभवनो उद्यम करतां करतां ज्यां निर्विकल्प आनंदनी अनुभूति थई–सम्यग्दर्शन थ्युं त्यां
वारंवार तेनी ज भावना करे छे, ने तेने आत्मामां ज सुख लागे छे, तथा बाह्य विषयो ज दुःखरूप लागे छे.
आनंदनो अनुभव न हतो त्यारे तो अंतरना अनुभवनो उद्यम करवामां कष्ट लागतुं ने बहारमां सुख
लागतुं; तेने आत्माना आनंदनी रुचि (–व्यवहार विश्वास) तो छे पण हजी अनुभव थयो नथी, तेथी कष्ट
जेवुं लागे छे. पण ज्यां अंतरमां आनंदनो अनुभव थयो–स्वाद चाख्यो त्यां बहारनो रस ऊडी गयो ने
चैतन्यना अनुभवमां ज सुख छे एटले हवे तो तेने आत्माना ध्याननो उत्साह आव्यो...जेम वधारे
एकाग्रता करुं तेम वधारे आनंद ने शांतिनुं वेदन थाय छे. आनंदनो स्वाद ज्यांसुधी चाख्यो न हतो त्यांसुधी
तेमां कष्ट लागतुं, पण हवे ज्यां आनंदनो स्वाद चाख्यो त्यां धर्मीने तेमांथी बहार नीकळवुं कष्टरूप–दुःखरूप
लागे छे. अज्ञानदशामां अनादिना संस्कारने लीधे विषयो रुचिकर भासता, पण ज्यां आत्मभावनामां
एकाग्र थईने तेना आनंदनुं वेदन कर्युं त्यां बाह्य समस्त विषयोनी रुचि छूटी गई; तेने चैतन्यना
अनुभवथी बहार नीकळीने परभावमां आववुं ते दुःख लागे छे, ने चैतन्यस्वरूपनी भावनामां–एकाग्रतामां
ज सुख लागे छे. चैतन्यनो वारंवार अभ्यास ने भावना करतां ते सहेलुं लागे छे...तेना आनंदनी निकटता
थतां बाह्य विषयोनी प्रीति छूटती जाय छे, ने आत्माना आनंदनुं वेदन थतां बाह्य विषयोमांथी सुखबुद्धि
छूटी जाय छे;–माछलांनी जेम. जेम माछलांनी रुचि शीतळ जळमां पोषाणी छे, तेमांथी बहार तडकामां के
अग्निमां आवतां ते दुःखथी तरफडे छे. तेम धर्मात्मा ज्ञानीनी रुचि पोताना शांत–चैतन्यसरोवरमां ज
पोषाणी छे, तेनी शांतिना वेदनथी बहार नीकळीने पुण्य के पापना भावमां आववुं पडे ते तेमने दुःखरूप
लागे छे. जेणे आत्मानी अतीन्द्रिय शांति कदी देखी नथी ने बाह्य विषयो ज देख्या छे तेने आत्माना
अनुभवनो प्रयत्न करतां शरूआतमां कष्ट लागे छे. पण ज्यां तेनो अभ्यास अने भावना करे छे त्यां तेमां
उत्साह आवे छे. अभ्यासदशामां जरा कष्ट लागे छे पण ज्यां पूरो प्रयत्न करीने आत्माना आनंदनो
अनुभव करे छे त्यां चैतन्यसुखना रस पासे तेने आखुं जगत नीरस लागे छे, समस्त विषयो दुःखरूप लागे
छे. नरकमां रहेला कोई समकिती जीवने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना वेदननी जे शांति आवे छे, तेवी
शांति मिथ्याद्रष्टिने स्वर्गना वैभवमां पण नथी. अरे! संयोगमां शांति होय के स्वभावमां? चैतन्यना शांत
जळमांथी बहार नीकळीने ईन्द्रियविषयो तरफ दोडे छे ते ज आकुळता छे. ने अती–