: १० : आत्मधर्म : २१४
१०८. अहीं अन्य द्रव्यना गुणधर्मने अन्य द्रव्यमां मेळववुं तेने असद्भूतव्यवहारनय कह्यो छे. आ
उपरथी ए शंका थाय छे के आ रीते तो ‘जीव वर्णादिमान छे’ एम स्वीकारनार द्रष्टिने पण असद्भूत
व्यवहारनय मानवो पडशे, केम के आ उदाहरणमां पण अन्यद्रव्यना गुणधर्मनो अन्य द्रव्यमां आरोप
करवामां आव्यो छे. परंतु विचारीने जोतां आ शंका साची लागती नथी केमके वास्तवमां नयनुं लक्षण तो जे
वस्तुना जे गुण धर्म छे तेमने तेना ज बताववा ते ज होई शके. जो कोई पण नय एक वस्तुना गुणधर्मने
अन्य वस्तुना बतावे तो ते नय ज नहि थाय. माटे जीव वर्णादिमान छे एवा विचारने सम्यक् नय मानी
शकाय नहि, केमके वर्णादिमान तो पुद्गल ज होय छे, जीव नहि. जीवमां तो तेमनो अत्यंताभाव ज छे छतां
पण अहीं अन्य द्रव्यना ग्रुणधर्मने अन्य द्रव्यमां आरोप जेवाने असद्भूत व्यवहारनय कहेवामां आवेल छे
ते कथननो अभिप्राय ज जुदो छे. वात एम छे के रागादि भाव जीवमां उत्पन्न थवा छतां पण नैमित्तिक होय
छे तेथी बन्धपर्यायनी द्रष्टिथी अतद्गुण मानीने जेवी रीते तेमनो जीवमां आरोप करवानुं बने छे तेवी रीते
पुद्गल साथे तादात्म्य पामेल वर्णादि गुणोनो जीवमां आरोप करवानुं त्रणकाळमां बनी शकतुं नथी. जो
व्यवहारनो आश्रय लईने जीवने वर्णादिमान मानवामां पण आवे तो तेने स्वीकारनार नय मिथ्या नय ज
हशे. तेने सम्यक्नय मानवो कोई पण रीते शक््य नथी केमके जे नय जुदी सत्तावाळां बे द्रव्योमां एकत्व बुद्धि
उत्पन्न करे ते सम्यक्नय होई शके नहि. जे पदार्थ जे रूपे अवस्थित छे तेने ते ज रूपे स्वीकारनार ज्ञानने ज
प्रमाण मानवामां आव्युं छे अने नयज्ञान प्रमाणज्ञाननो ज भेद छे. जो आ ज्ञानोमां कोई अन्तर होय तो
ते एटलुं ज के प्रमाणज्ञान अंशभेद कर्या विना पदार्थने समग्र भावथी स्वीकारे छे अने नयज्ञान एक एक
अंश वडे तेने स्वीकारे छे. तेथी अहीं एम ज समजवुं जोईए के जे नयज्ञान विवक्षित पदार्थना गुणधर्मने
तेना ज बतावे छे ते ज नयज्ञान सम्यक्नी गणतरीमां आवे छे, अन्य नयज्ञान नहि.
१०९. पंचाध्यायीमां नयनुं लक्षण तद्गुण संविज्ञानरूप कहेवानुं ए ज कारण छे. जो एम कहेवामां
आवे के जो एम वात होय तो बीजी जग्याए (अनगार धर्मामृत अने आलाप पद्धति आदि ग्रन्थोमां)
अतद्गुण आरोपने असद्भूत व्यवहारनय बतावीने ‘शरीर मारुं छे’ एम स्वीकारनार विकल्प ज्ञानने
अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय अने ‘धन मारुं छे’ एम स्वीकारनार विकल्पज्ञानने उपचरित असद्भूत
व्यवहारनय केम मानवामां आवेल छे? समाधान ए छे के मिथ्याद्रष्टिने अज्ञानवश अने सम्यग्द्रष्टिने
रागवश शरीरादि परद्रव्योमां ममकाररूप विकल्प थाय छे एमां संदेह नथी. पण शुं ए विकल्पना थवा मात्रथी
ज ते अनात्मभूत शरीरादि पदार्थ तेना आत्मभूत थई जाय छे? जो एम कहेवामां आवे के ते रहे छे तो
अनात्मभूत ज ते (शरीरादि पदार्थ) आत्मभूत त्रणकाळमां थई शकता नथी. छतां पण मिथ्याद्रष्टिनी वात
छोडो, सम्यग्द्रष्टिने पण रागवश ‘आ मारा’ एवी जातनो विकल्प तो थाय ज छे. एने मिथ्या केवी रीते मानी
शकाय? समाधान ए छे के सम्यग्द्रष्टिने लोकव्यवहारनी द्रष्टिथी रागवश ‘आ मारा’ ए जातनो विकल्प थाय
छे एमां शंका नथी. अहीं सम्यग्द्रष्टिने ए जातनो विकल्प ज थतो नथी. अहीं ए बताववानुं प्रयोजन नथी.
पण अहीं जोवानुं ए छे के ज्यां सम्यग्द्रष्टिना ‘आ मारा’ एवा विकल्पने पण ‘स्व’ कह्यो नथी त्यां शरीरादि
परद्रव्योने तेनुं ‘स्व’ केवी रीते मानी शकाय? अर्थात् त्रण काळमां मानी शकातुं नथी.
११०. ए ज अभिप्राय ध्यानमां राखीने समय प्राभृतमां कह्युं पण छे :–
अहमेदं एदमहं अहमेदस्सेव होमि मम एदं ।
अण्णं जं पर दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ।। २०।।
आसि मम पुव्वमेदं एयस्स अहं पि आसि पुव्वं हि ।
होहिदि पुणोवि मज्झं एयस्स अहं पि होस्सामि ।। २१।।
एवं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो ।
भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ।। २२।।
अर्थ :– जे पुरुष सचित्त, अचित्त अने मिश्ररूप अन्य परद्रव्योना आश्रयथी एवो मिथ्या आत्मविकल्प