Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण : २४८७ : ११ :
करे छे के ‘हुं’ आ शरीर (धन अने मकान आदि) रूप छुं, ए मारा स्वरूप छे, हुं एमनो छुं, ए मारां छे, ए
पहेलां मारां हतां, हुं पहेलां एमनो हतो, ए मारां भविष्यमां थशे अने हुं पण भविष्यमां एमनो थईश’ ते
मूढ छे, पण जे पुरुष भूतार्थने जाणीने आवो मिथ्या आत्मविकल्प करतो नथी ते ज्ञानी छे. २०–२२
१११. तेथी जेटला कोई रागादि वैभाविकभाव आत्मामां उत्पन्न थाय छे तेमने आत्माना मानवा ते
तो श्रद्धामूलक ज्ञाननयनी अपेक्षाए असद्भूत व्यवहारनयनो विषय थई शके छे. परंतु आ द्रष्टिथी ‘शरीर
मारुं’ अने ‘धन मारुं’ ए उदाहरण असद्भूतव्यवहारनयना विषय थई शकता नथी, पंचाध्यायीमां आ ज
तथ्यनो विवेक करीने रागादिने असद्भूतव्यवहारनयनुं उदाहरण कहेवामां आव्युं छे. शरीरादि अने धनादि
परद्रव्य छे, तेथी ते तो आत्मामां असद्भूत छे ज. एना संबंधथी ‘आ मारां’ एवी जातनो जे आत्मविकल्प
थाय छे ते पण ज्ञायक स्वभावमां असद्भूत छे. ए ज तथ्यने ध्यानमां राखीने आचार्य कुन्दकुन्दे एवो
विकल्प करनारने मूढ–अज्ञानी कह्यो छे. अने ए वात योग्य पण छे, केम के जे परद्रव्य छे तेमां आ जीवनी
जो आत्मबुद्धि बनी रहे तो ते ज्ञानी केवी रीते थई शके?
११२. एटलुं अवश्य छे के सम्यग्द्रष्टिने शरीरादि परद्रव्योमां आत्मबुद्धि तो होती नथी पण ज्यांसुधी
प्रमाददशा छे त्यां सुधी राग अवश्य थाय छे, तेनो निषेध नथी. जो के आ राग पण आत्मानो स्वभाव नथी
तेथी तेने परभाव कह्यो छे पण ते थाय छे आत्मामां ज. दरेक सम्यग्द्रष्टि आ सत्यने जाणे छे. फक्त जाणता
ज नथी, पण एवी श्रद्धा पण होय छे के आ राग आत्मामां उत्पन्न थवा छतां पण कर्म (अने नोकर्म) ना
संबंधथी ज उत्पन्न थाय छे, तेमना अभावमां उत्पन्न थता नथी. माटे ए मारो स्वभाव न होवाथी पर छे,
तेथी ज हेय छे अने आ जे सम्यक्त्वादि स्वभावभूत आत्माना गुण छे ते आत्माना स्वभावनी सन्मुख
थतां ज उत्पन्न थाय छे, परनिमित्तोनो आश्रय लेवाथी त्रणकाळमां उत्पन्न थता नथी. माटे मारे
परनिमित्तोनुं आलंबन छोडीने मात्र पोताना त्रिकाळी ज्ञायक स्वभावनुं ज आलंबन लेवुं कल्याणकारी छे.
सम्यग्द्रष्टिनी आवी श्रद्धा होवाने लीधे ते आत्मामां रागादि वैभाविक भावोनो स्वीकार तो करे छे पण
परभावरूपे ज स्वीकार करे छे. आ रीते रागादि परभाव छे छतां पण तेमने आत्मामां स्वीकारवामां आव्या
तेथी जे अन्य वस्तुना गुणधर्मने अन्यमां आरोपित करे छे ते असद्भूत व्यवहारनय छे. ए लक्षण प्रमाणे
तो ‘रागादि जीवना’ एने असद्भूतव्यवहारनयनुं उदाहरण मानवुं योग्य छे पण ‘शरीरादि मारां अने
धनादि मारां’ एवा विशेषण युक्त विकल्पने असद्भूतव्यवहारनयनुं उदाहरण मानवुं योग्य नथी, छतां पण
बीजी जग्याए (अनगारधर्मामृत अने आलापपद्धति आदिमां) ‘शरीर मारुं, धन मारुं’ एने स्वीकारनार
जे असद्भूतव्यवहारनय कह्यो छे ते सम्यग्द्रष्टिना लौकिक व्यवहारने स्वीकारनार ज्ञाननी मुख्यताथी कह्यो
छे, श्रद्धा गुणनी मुख्यताथी नहि.
११३. वात ए छे के लोकमां ‘आ शरीर मारुं, आ धन अथवा अन्य पदार्थ मारां’ एवो
अज्ञानमूलक बहुजन सम्मत व्यवहार होय छे अने सम्यग्द्रष्टि पण एने जाणे छे. जो के ए व्यवहार मिथ्या
छे, केम के जे शरीरादिना आश्रयथी लोकमां आ व्यवहार प्रवर्ते छे तेनो आत्मामां अत्यन्ताभाव छे. छतां
पण सम्यग्द्रष्टिना ज्ञानमां लोकमां एवो व्यवहार होय छे तेनो स्वीकार छे. बस ए ज वात ध्यानमां राखीने
बीजे ‘शरीर मारुं, धन मारुं’ ए व्यवहारने स्वीकारनार नयने असद्भूत व्यवहारनय कहेवामां आवेल छे.
११४. लोकमां आ ज जातना बीजा पण घणा व्यवहार प्रचलित छे. जेम के परद्रव्यना आश्रये कर्ता–
कर्म व्यवहार, भोक्ता–भोग्यव्यवहार अने आधार–आधेय व्यवहार आदि. आ बधा व्यवहारोना संबंधमां
पण आ ज द्रष्टिकोणथी विचार करी लेवो जोईए. श्रद्धागुणनी द्रष्टिथी जो विचार करवामां आवे तो न तो’
आत्मा कर्ता छे अने अन्य पदार्थ तेनुं कर्म छे’–ए व्यवहार बने छे, न ‘आत्मा भोक्ता छे अने अन्य पदार्थ
भोग्य छे’– ए व्यवहार बने छे, तथा न ‘घटादि पदार्थ आधार छे